मंगलवार, 28 सितंबर 2010

पर्यावरण की सुरक्षा का खोखलापन

सुनील शर्मा

कहते है कि चीजे बहुत तेजी से बदल रही है. इंसान की रफ्तार भी तेज हो चुकी है और
वह अपने ही आसपास की चीजों को नहीं समझ पा रहा हैं. ढेर सारे बदलावों में एक बदलाव है, पर्यावरण का बदलाव. इस बदलाव को समझने की ही नहीं बल्कि तेजी से बढ़ते खतरे को भी महसूस करने और समय रहते इसके बचाव के उपाय करने आवश्यक है,
नहीं तो यह हमें ही नहीं बल्कि संपूर्ण मानवजाति को निगल लेगा. हालांकि मैं ऐसा नहीं कह रहा हूं कि पर्यावरण संरक्षण को लेकर जरा भी जागरूकता नहीं है लेकिन यदि कुछ लोग जागे भी है तो अपने स्वार्थ के कारण.


हाल ही में तोते के चरित्रहनन विषय पर आयोजित परिचर्चा के दौरान पर्यावरणप्रेमी और लेखिका डा. कविता दाभडक़र जो कि गल्र्स डिग्री कालेज में प्राध्यापिका ने एक बात कही थी कि यदि आज कुछ लोग, समाज और देश पर्यावरण संरक्षण की बात कह रहा है तो उसके पीछे भी उसका अपना ही
स्वार्थ छिपा है. मेरा मानना है कि यदि निज-स्वार्थ के कारण भी कोई पर्यावरण संरक्षण के लिए आगे आता है तो मैं उसे बधाई देता हूं क्योंकि किसी बहाने ही सही उसने सही दिशा में कदम तो उठाया है.

सुधार की शुरुआत हमेशा खुद से करनी चाहिये फिर चाहे वह आचरण हो या फिर और कोई बुराई. पर्यावरण के संरक्षण के
मामले में भी मेरा कुछ ऐसा ही मत है. मेरा मानना है कि तेजी से प्रदूषित होते पर्यावरण पर अब एकदम से रोक लगा पाना मुश्किल है. यह नामुमकिन है कि कुछ सेमिनार, कार्यशाला, मीटिंग, ट्रेनिंग या कुछ दिनों के फील्ड वर्क से इस समस्या से चंद दिनों में छुटकारा पा लेंगे.

विकास का जिस तरह का मॉडल अभी विश्व में अपनाया गया
है, उससे पर्यावरण तेजी से प्रदूषित होता है जबकि प्रदूषण से छुटकारा पाने में सालों लग जाते हैं. औद्योगिकीकरण की भूख ने संपूर्ण मानवता को ही खतरे में डाल दिया है. माना कि यह युग औद्योगिक विकास का युग है, लेकिन आने वाली पीढिय़ा इसे पर्यावरण विनाश का युग भी मानेगी. शायद यह बात हम भूल जाते हैं.

फैक्ट्रियों, कारखानों से निकलने वाला धुआ हमें हजारों तरह की नई-नई बीमारिया दे रहा है और हम खुद का विकसित कहलाने में गौरान्वित महसूस कर रहे हैं. कार्बन मोनो आक्साइड, नाइट्रोजन
-डाइ-आक्साइड और सल्फर-डाइ आक्साइड जैसी गैसें जो मोटरों के ईंधन के जलने से उत्पन्न होती है, मानव जीवन में जहर घोलने का कार्य कर रही है. पानी का प्रदूषण मुख्य रूप से फैक्ट्रियों से निकलने वाले केमिकलयुक्त पानी और अपशिष्ट पदार्थों से होता है. कीटनाशकों के बेतहाशा उपयोग ने जमीन को जहां बंजर बनाने का काम किया, वहीं खाद्यान्न की गुणवत्ता पर भी असर डाला. इससे कई तरह की बीमारियां होने लगी. सडक़ों के किनारे फेंके जाने वाले कुड़ा-कर्कट, नदियों में फेंके जाने वाले अपशिष्ट पदार्थों के साथ ही और भी अन्य तरह से पर्यावरण का नुकसान पहुंचाने का कार्य मनुष्य द्वारा किया जा रहा है.

हैरत की बात तो यह है कि यह जानते हुए कि इससे पर्यावरण प्रदूषित होता है, मनुष्य अपनी हरकत से बाज नहीं आता. जल, वायु, भूमि, के साथ ध्व
नि प्रदूषण भी बहुत ही तेजी से बढ़ा है. तरह-तरह के विकिरण जो हमे दिखाई नहीं देते, परमाणु युग की देन है. ये रेडियो विकिरण स्वास्थ्य के लिये घातक है. परमाणु शस्त्रों के परीक्षण से इन विकिरणों की मात्रा दिनोंदिन बढ़ती जा रही है.

सभी देशों के वैज्ञानिक इस खोज में लगे हुए है कि किस तरह पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाया जा सके. रोज ही इसके लिए शोध किये जा रहे हैं. भारत में भी पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाने के लिये उपाय हो रहे हैं, लेकिन अभी-अभी लोगों में
इसे लेकर जागरूकता नहीं है.

छह साल पहले 22 अपै्रल 2004 को भारत के पर्यावरणविदों की मांग पर सुप्रीम कोर्ट ने एनसीईआरटी से स्कूलों के लिए पर्यावरण पाठ्यक्रम तैयार कर अध्ययन कराने के निर्देश दिये थे. पर्यावरणविदों और पर्यावरणपे्रमियों को इस मामले में
तर्क ये था कि मनुष्य हर पढ़ी हुई चीज पर विश्वास करता है जैसे कि वह अखबारों में छपी खबर को सच मानता है.

यदि
बचपन से ही पर्यावरण संरक्षण की बात पाठ्यक्रम के रूप में बच्चों तक पहुंचाई जाये तो बच्चे बड़े होकर पर्यावरण की सुरक्षा में अपना योगदान देंगे. साथ ही खुद
भी कभी ऐसे व्यवसाय को नहीं अपनाएंगे जिससे पर्यावरण प्रदूषित होता है.

एनसीईआरटी द्वारा तैयार किये गये आदर्श पाठ्यक्रम को सुप्रीम कोर्ट द्वारा मंजूरी मिलने के बाद से लेकर अब तक बच्चें स्कूलों में इसे विषय के रूप में अध्ययन कर रहे हैं. पर एक संकट यह है कि अन्य विषयों के बीच इनका अस्तित्व सुरक्षित नहीं है. दरअसल यह पाठ्यक्रम शिक्षकों की अनदेखी का शिकार हो रहा है. यह दुखद नहीं है तो और क्या है. सुप्रीम कोर्ट ने एनसीईआरटी को यह जिम्मा सौंपा था कि वह देखें कि देशभर में 12 वीं कक्षा तक पर्यावरण की शिक्षा दी जा रही है या नहीं. एनसीईआरटी ने राज्य सरकारोंं तथा 500 से अधिक पर्यावरण से जुड़े प्रतिष्ठानों, गैर-सरकारी संगठनों और पर्यावरण विशेषज्ञों से विचार-विमर्श करके यह पाठ्यक्रम तैयार किया था, लेकिन इससे भी पर्यावरण सुरक्षा की दिशा में फिलहाल कुछ खास फर्क पड़ता दिखाई नहीं दे रहा है. हालांकि यह बात भी सच है कि इतनी बड़ी समस्या का हल एक-दो दिनों में तो होगा नहीं, परिवर्तन शनै: शनै: ही संभव है. धैय रखना पड़ेगा तभी पर्यावरण का संरक्षण हो सकता है.

यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन से भी पूछा गया था कि बीए और एमए में पर्यावरण अध्ययन को विषय के रूप में शुरू किया जा सकता है या नहीं. फिलहाल तो पाठ्यक्रम शुरू नहीं हुआ है. पर्यावरण सुरक्षा को लेकर अब तक कई ऐसे अभियान जिनका संबंध खासतौर पर पर्यावरण शिक्षा से है, चलाने का श्रेय देश के प्रमुख वकीलों में से एक और प्रख्यात पर्यावरणवादी एमसी मेहता को जाता है. 1991 को उन्होंने पहली बार पर्यावरण की सुरक्षा को लेकर सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और आने वाले संकट को लेकर देश की जनता को आगाह किया. पर श्री मेहता के इस प्रयास की कद्र कितने लोगों ने की और उनकी बातों पर गौर करते हुए पर्यावरण संरक्षण की दिशा में कितने लोग आये. शायद उतने नहीं.

पिछले कुछ वर्षों में देखने को मिल रहा है कि पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाने के लिए देश और दुनिया में जगह-जगह सम्मेलन, संगोष्ठियां, कार्यशालाएं और इसी तरह के अन्य कई कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं. ऐसे कार्यक्रमों से लाभ तो मिलता है लेकिन बहुत कम या कई बार नहीं भी मिलते. अधिकांश कार्यक्रम के पीछे उद्देश्य शासकीय रुपये का हड़पना ही होता है.

अंत में छत्तीसगढ़ की बात. इस प्रदेश का 44 फीसदी क्षेत्र को वनाच्छादित माना जाता है. हालांकि यह केवल सरकारी आंकड़ा है, जो सच्चाई से कोसों दूर है. कभी यहां का पर्यावरण अच्छा हुआ करता था. लेकिन पिछले दस सालों में अर्थात राज्य बनने के बाद से लेकर अब तक प्रदेश के पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने के कई कारक और कारण यहां उत्पन्न हो गये हैं.

अकेले जांजगीर-चांपा जैसे छोटे जिले में 40 पावर प्लांट की स्थापना के लिए एमओयू करने वाली राज्य सरकार पर्यावरण संरक्षण का दम भरती है लेकिन बस्तर, दंतेवाड़ा, रायगढ़, कोरबा, रायपुर, बिलासपुर, सहित प्रदेश के अन्य जिलों में तेजी से प्रदूषित होते पर्यावरण से शायद ही जनता सरकार की ईमानदारी पर यकीन करें. पर्यावरण संरक्षण के लिए ईमानदार प्रयास के साथ ही ईमानदार हुकूमत का होना आवश्यक है, जो कि वर्तमान में नहीं है. चाहे कांग्रेस हो या राज्य की सत्ता में दूसरी बार काबिज हुई भाजपा, दोनों ने अपने-अपने ढंग से राज्य के विकास के नाम पर ऐसी योजनायें बनाई और संचालित की, जिसने पर्यावरण की सुरक्षा को खोखला कर दिया.

पर्यावरण की सुरक्षा के नाम पर केवल यहां दिखावा किया गया है और कुछ नहीं. पिछले साल सीएमडी कालेज के प्रोफेसरों ने अंतरराष्ट्रीय सेमिनार कर पर्यावरण संरक्षण की दिशा में प्रयास करने का आह्वान किया था लेकिन यदि उनसे पूछा जाये कि बीते एक वर्ष में प्रदेश या अकेले बिलासपुर शहर को इस सेमिनार से क्या लाभ मिला तो वे नहीं बता पाएंगे. सिवाय चंद लोगों को कुछ प्रमाणपत्र और अखबारों में तस्वीर छपने के.

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