मंगलवार, 31 अगस्त 2010

सड़ता अनाज मंहगा पड़ा पवार को

भारत सरकार के गोदामों में सड़ते हुए अनाज को ग़रीबों में बांटने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश को सुझाव का नाम देना केंद्रीय कृषि मंत्रि शरद पवार को मंहगा पड़ा है.
जाहाँ सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर उन्हें आड़े हाथों लिया वहीं लोकसभा में उन्हें सफ़ाई भी देनी पड़ी.

मुख्य विपक्षी दल भाजपा ने इसे सरकार कीअसफलता बताया और कहा कि कृषि मंत्री कोइस्तीफ़ा देना चाहिए.
याद रहे कि सुप्रीम कोर्ट ने मानवाधिकार संगठन पीयूसीएल की एक जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान 12 अगस्त को कहा था कि सरकार गोदामों में अनाज को सड़ने देने के बजाए इसे भूखे और ग़रीब लोगों में मुफ़्त बाँटदे.

इस मामले में मीडिया रिपोर्टों के अनुसार कृषि मंत्री शरद पवार ने कहा था कि ये सुप्रीम कोर्ट का सुझाव है जिसेलागू नहीं किया जा सकता है.
मंगलवार को कोर्ट ने मीडिया रिपोर्टों पर संज्ञान लेते हुए कहा कि उन्होंने 12 अगस्त को फ़ैसला दिया था और येसुझाव नहीं है.

जस्टिस दलवीर भारती और दीपक वर्मा की खंडपीठ ने कहा कि कृषि मंत्रि का ये दावा ग़लत है कि हमने सुझावदिया था. वो आदेश था जिसे लागू किया जाना चाहिए.

कोर्ट के इस बयान के बाद ये मुद्दा लोकसभा में भी उठा. जनता दल यू के नेता शरद यादव ने कहा, ‘‘ अनाज मुफ़्तमें बांटना कोई नई बात नहीं है. एनडीए सरकार ने ये किया है लेकिन कृषि मंत्री तो अनाज सड़ा रहे हैं गोदामों में. अब तो सुप्रीम कोर्ट ने भी कह दिया है.’’
नेता इस मुद्दे पर अत्यंत नाराज़ थे क्योंकि पहले भी अनाज गोदामों में सड़ने के मुद्दे पर शरद पवार के बयान काफ़ीलापरवाही भरे रहे हैं.

मुलायम सिंह यादव ने भी इस पर कड़ी आपत्ति जताई कि कोर्ट को क्यों ये स्पष्ट करने की ज़रुरत पड़ी कि ये आदेशथा सुझाव नहीं.
उन्होंने कहा, ‘‘ सुप्रीम कोर्ट ने साफ़ किया है. अब तो सरकार संज्ञान ले. गोदामों में अनाज सड़ रहा है. किसानों कोधान सस्ता बेचना पड़ रहा है. सूखा है बाढ़ है. देश के अलग-अलग स्थानों में.’’

पवार पर हमला

अन्य दलों के नेताओं ने भी इस मामले पर कृषि मंत्री को आड़े हाथों लिया.

हंगामा बढ़ता ही गया और और कुछ देर के बाद कृषि मंत्री को बयान देने के लिए आना पडा. अपने बयान में वो बचाव की मुद्रा में दिखे.
शरद पवार ने कहा, ‘‘ मैं सदन को आश्वस्त करना चाहता हूं कि सुप्रीम कोर्ट हो या हाई कोर्ट हम फै़सलों की इज़्ज़त करते हैं. उन्हें लागू करेंगे. सांसदों ने सुझाव दिए वो भी मानेंगे. अभी कोर्ट का पूरा फ़ैसला मुझे मिला नहीं है. लेकिन जल्दी ही जाएगा.’’
लोकसभा में मामला ख़त्म हो गया लेकिन मुख्य विपक्षी दल बीजेपी ने इस पर कड़ा रुख़ अख़्तियार किया. पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी ने प्रेस वार्ता बुलाई और सरकार की कड़ी आलोचना की.

गडकरी ने कहा, ‘‘ये कृषि मंत्री की असफलता नहीं है. ये पूरे यूपीए सरकार की असफलता है. कृषि मंत्री को तो तत्काल इस्तीफ़ा देना चाहिए. देश में बड़ी-बड़ी बातें हो रही है लेकिन अनाज के लिए ठीक गोदाम तक नहीं हैं.’’

अपने शहर में भी पिपली लाइव हो गया हूँ



अपनी पहली फ़िल्म 'पीपली लाइव' से

ओंकार दास को काफ़ीलोकप्रियता मिली है. बहुचर्चित फ़िल्मपीपली लाइवके नायकओंकारदास मानिकपुरी अपनी फ़िल्म रिलीज होने के बाद जब सेअपने घर छत्तीसगढ़ के भिलाई पहुंचे हैं,

तब से हर रोज़ उनकासम्मान किया जा रहा है. इसी व्यस्तता के बीच हमने जाना ओंकारदास मानिकपुरी यानीपीपलीलाईवके नत्था का हालचाल:


मैं एक मज़दूर परिवार में पैदा हुआ हूं और मेरे मां-बाप मज़दूरी करते रहे हैं. सच कहूं तो मैं ईंट-गारों के बीच ही पला-बढ़ा हूं. पांचवीं तक पढ़ाई करने के बाद पढ़ाई-लिखाई से मेरा कोई रिश्ता बचा नहीं, सो मेहनत-मजदूरी करकेही जीवन चलता रहा है.

भिलाई शहर में मैंने बतौर मज़दूर कई साल काम किए हैं. मज़दूरी से बात नहीं बनी तो सब्जी की दूकान भी लगाई और आलू प्याज भी बेचे.



हबीब तनवीर से मुलाक़ात


पहली बार साल 1999 में बीबीसी के सहयोग से आयोजित एक वर्कशाप में मुझे साक्षरता और कुष्ठ रोग पर केंद्रितएक नाटक में भाग लेने का अवसर मिला. इस वर्कशाप के समापन समारोह में हबीब तनवीर साहब मुख्य अतिथिबन कर आए थे.

नाटक में मेरा काम देखने के बाद उन्होंने मुझे रायपुर बुलवाया और वहां कुष्ठ पर ही एक नाटक सुनबहरी में मुझेकाम दिया. इस तरह मैं हबीब तनवीर केनया थिएटरसे जुड़ गया


अगर हबीब तनवीर मुझेनया थिएटरमें लेकर नहीं गए होते और आज मैं इस मुकाम पर नहीं होता.

पीपली लाइवमें काम के लिए मैंने एक छोटे से रोल मछुआ के लिये ऑडिशन दिया था लेकिन ऑडिशन देखने केबाद आमिर ख़ान, अनुषा जी और महमूद फारुखी जी ने कहा कि नत्था के लिए इससे बेहतर कोई नहीं हो सकता.

इस तरह नत्था के लिये मैं चुन लिया गया.

फ़िल्म पूरी होने के बाद आमिर खान मेरे अभिनय से खुश थे. एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा कि ओंकार को देखनेके बाद मेरी हिम्मत ही नहीं हुई कि मैं नत्था का रोल करूं.



शूटिंग का अनुभव



पीपली लाइवकी शूटिंग के पहले दिन जब कैमरा मेरे सामने था तो मैं डर गया.

फिर फ़िल्म की निर्देशक अनुषा रिजवी ने मुझे समझाया कि आपनया थिएटरके कलाकार हैं, आप क्यों घबरारहे हैं? यह कैमरा-वैमरा छोड़िए और आप समझिए कि आप स्टेज पर नाटक कर रहे हैं.

खैर, पहले दिन तो मैं डरा हुआ ही रहा लेकिन दूसरे दिन से डर जाता रहा. कोई ढाई महीने तक शूटिंग हुई.


थिएटर तो थिएटर है. वहां आप सीधे दर्शक से मुखातिब होते हैं. वहां आपके पास खूब स्पेस होता है. लेकिन ये भी हैकि वहां री-शूट नहीं है. आपने कोई डॉयलॉग बोलने में गड़बड़ी की तो वो गया.

फ़िल्म में आप रिटेक पर रिटेक करवा सकते हैं. लेकिन यहां फ्रेम की बंदिश है कि हाथ अगर इस ऊंचाई तक उठानाहै तो इसे आप उससे कम या ज़्यादा नहीं कर सकते.



नत्था के साथ कॉमेडी



फ़िल्म में नत्था से कोई नहीं पूछता कि तुम क्या चाह रहे हो. जो भी आता है, वह यही सवाल करता है कि तुम क्योंमरना चाहते हो? आत्महत्या के फैसले के बाद तुम्हें कैसा लग रहा है? कोई ये नहीं पूछता कि नत्था क्या चाह रहाहै. फ़िल्म में उसके साथ तो कॉमेडी होती ही रहती है.

मुझे भी फ़िल्म में नत्था को देख कर खूब हंसी आई.

अपने शहर में लौटने के बाद मैंने फ़िल्म नहीं देखी है. टॉकीज़ में जब मैंने पहली बारपीपली लाइवदेखी तो मेरेमन में यही भाव आया कि किसी समय मैं ऐसी ही टॉकीज़ में बैठ कर फ़िल्म देखता था, आज लोग मेरी फ़िल्म देखरहे हैं.



परिवार


घर में मां हैं, एक छोटा भाई है, पत्नी और तीन बच्चे हैं. पूरे परिवार ने फ़िल्म देख ली है और सब खुश हैं. बड़ी बेटीकॉलेज में है. उससे छोटा बेटा पांचवी में पढ़ रहा है. छोटी बेटी पहली कक्षा में है.

बेटे ने मेरे साथ फ़िल्म में मेरे बेटे की भूमिका निभाई है. उसे मैं कभी-कभार थिएटर में ले जाया करता था.

अपनी पत्नी सहित परिवार के दूसरे सदस्यों को भी मैं अपने शो में ले जाता रहा हूं और घर वालों ने हमेशा मेरे कामकी सराहना ही की है.

मेरी पत्नी को भी अच्छा लगता है कि मैं थिएटर करता हूं. ‘पीपली लाइवमें मेरा काम देख कर वो बहुत खुश हैं.

मेरे ख्याल से मैं पहले जैसा था, अब भी वैसा ही हूं. जीवन में भी कोई खास बदलाव नहीं आया है. हां, देखने वालों कानजरिया ज़रुर बदला है.



शहर में भी 'पीपली लाइव'


फ़िल्म में मीडिया नत्था के पीछे रहता था, अब अपने शहर में भी मैं वास्तव मेंपीपली लाइवहो गया हूं. मीडियालगातार घेरे रह रहा है.


फ़िल्म रिलीज होने के बाद जिस दिन मैं मुंबई से लौटा, उस दिन मेरे मुहल्ले में जितने लोग उमड़े, उनको संभालपाना मुश्किल था. अब यहां हूं तो मेरे जीजा, मेरे भांजे संभाल पा रहे हैं.

जब से मैं अपनी बस्ती में लौटा हूं, तब से हर रोज सम्मान का सिलसिला चल रहा है. मुझे अच्छा भी लग रहा है किपहली फ़िल्म से ही लोग मुझे जानने लगे हैं, मुझे इतना सम्मान दे रहे हैं.

फ़िल्म के कुछ प्रस्ताव हैं लेकिन मैंने अभी किसी को हां नहीं कहा है. फ़िल्म के बारे में मैं आमिर जी से ज़रुर सलाहलेना चाहूंगा क्योंकि फ़िल्म मेरे लिए एकदम नया माध्यम है.

सितंबर में आगरा बाजार, चरणदास चोर के मंचन की खबर है. फिलहाल तो यही व्यस्तता रहेगी.

सोमवार, 30 अगस्त 2010

पीपली लाइव का सीधा प्रसारण




रामकुमार तिवारी

इधर कुछ महीनों से मीडिया में पीपली लाईव ने अपनी ऐसी धमक बनाई है कि देश का एक बड़ा वर्ग इस फ़िल्म पर न्यौछावर हुआ जा रहा है. आश्चर्य नहीं कि फिल्म समीक्षक जय प्रकाश चौकसे इस फिल्म की स्तुति में यह कह रहे हैं कि " किसी भी नेता के भाषण या हमारे महाविद्यालयों के शोध पत्र से ज्यादा सारगर्भित और महत्वपूर्ण है यह फिल्म. इसके लिए अनुषा रिजवी को डॉक्टरेट की उपाधि दी जानी चाहिये."


‘पीपली लाइव’ पर जय प्रकाश चौकसे की यह टिप्पणी चौकस लगी कि इसमें किसी नेता के भाषण से ज्यादा सार है. बस ! इससे ज्यादा नहीं.

देखते-देखते यह कैसा दौर आ गया कि एक सनसनी का तुमार कुछ इस तरह ताना जा सकता है कि वह महानता की जगह घेर ले और समाज बौरा जाये. लगभग दो लाख किसानों की आत्महत्याओं को इस तरह तयशुदा मजाक बना दिया जाये कि वे सोच-समझकर परिवार, समाज में लंबे समय तक बातचीत करके बेहद व्यवसायिक रूप से मुआवजा के लिए ही की गई है. जीवन का कैसा अवमूल्यन है और मृत्यु का कैसा अपमान. आत्महत्या की त्रासदी को एक आर्थिक विकल्प के रूप में किस तरह घटा दिया गया है.

फिल्म निर्माण रचनात्मक अवदान है न कि एक सनसनी मात्र कि देखो! हमने किस तरह मीडिया, व्यवस्था और राजनीति को उघाड़ दिया है. बस हो गया हमारे कर्तव्य का निर्वहन. क्या एक कला माध्यम को देय सिर्फ इतना ही हो सकता है ?

हम आमिर खान या आमिर खान जैसे फिल्मकारों से ईरान के महान फिल्मकार अब्बास कियारोस्तामी की तरह किसी ऐसी फिल्म की उम्मीद नहीं कर सकते जो अपने मुल्क और उसकी जनता से बेपनाह मुहब्बत करते हुए एक-एक शॉट्स और एक-एक फिल्म इस तरह रचता हो, जिसमें उनके देश ईरान और उनके जन-जन की आत्मा का सौंदर्य अपनी मानवीय गरिमा के साथ प्रकट होते हैं. कुछ यूं कि दूर देशों के दर्शक भी उनके देश ईरान और उसकी जनता से प्रेम करने लगते हैं और उनके अंदर भी ईरान को देखने और उसकी जनता से मिलने की इच्छा जन्म लेने लगती है.

इस समय ईरान के हालात बेहद खराब है. राजनीति के हुक्मरानों ने अब्बास कियारोस्तामी साहब को उन्हीं के घर में नजरबंद कर दिया है. उन पर फिल्म न बनाने की पाबंदी भी लगा दी गई है. अमरीका सहित पूरे दुनिया के दरवाजे उनके लिए खुले हैं, फिर भी अब्बास साहब अपना घर और मुल्क छोड़कर नहीं जाना चाहते. क्या करें ? उन्हें नींद अपने मुल्क और अपने घर में ही आती है. अपने देश और अपनी जनता से ऐसी मुहब्बत का जज्बा ही ऐसी रचनात्मकता को जन्म दे सकता है.....खैर छोडिये. फिलहाल तो हम अपने ही देश की फिल्मों और फिल्म निर्माताओं की बात करें.

किसानों की पृष्ठभूमि पर बनी महबूब खान की फिल्म ‘मदर इंडिया’ को तो कम से कम हमारी दृष्टि चेतना का हिस्सा होना ही चाहिये. बैंक ऋण की जगह पुरातन महाजनी पंजे में फंसे किसान परिवार की गाथा का कैसा फिल्मांकन था ? ‘‘पीपली लाइव’’ के नत्था की परिस्थिति मदर इंडिया की अबला नारी से ज्यादा बद्दतर तो नहीं थी. लेकिन उसमें जीवन कैसे संभव हुआ, हर सर्वहारा को थामता हुआ हिम्मत देता हुआ. वह फिल्म के माध्यम से हमारा जागरण काल था. जिजीविषा, संघर्ष, आम गौरव की फिल्मी गाथा ने किस तरह मूल्यों का सृजन किया था. इतनी फिल्मी लंबी यात्रा के बाद उसी परिस्थिति पर बनी फिल्म ‘‘पीपली लाइव’’ का ट्रीटमेंट हमें सोचने पर विवश करता है. हम कब कहां से कहां आ गये और ऊपर से सफलता, महानता का इतना शोर ?

'पीपली लाइव' में न तो आत्यहत्या के मनोविज्ञान की समझ है और न ही समाज के बहुआयामों की.


कला में सिर्फ भौडा कटु यथार्थ ही सब कुछ नहीं होता, रचना अपने होने में जो अतिरिक्त, जो नहीं है, उसे सृजित करती है, जोड़ती, अलगाती है. तभी तो वह रचना है, कला है, फिल्म है.

आइडिया में कभी संवेदना नहीं होती. सिर्फ एक होशियारी होती है. जो अपनी सामाजिक भूमिका के लिए एक पेशेवर संवेदना का स्वांग रचकर समाज की भावनाओं की मार्केटिंग करती है. वह समाज को झकझोरने की जगह एक क्षणिक उत्तेजना पैदा करके एक अभ्यस्ती बनाने लगती है.

‘‘पीपली लाइव’’ में न तो आत्यहत्या के मनोविज्ञान की समझ है और न ही समाज के बहुआयामों की. फिल्म के लिहाज से भी यह आमिर खान की सबसे कमजोर फिल्म है. फिल्म की लय जगह-जगह टूटी हुई है. कहीं-कहीं तो वह फिल्म का कोलॉज लगती है.
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देश में फिल्मी जगत की जो दुर्दशा है, उसमें निश्चित तौर पर आमिर खान इस दशक के सबसे सफल निर्माता है, लेकिन बड़े नहीं है. बड़ा होना और सफल होना दो अलग-अलग बातें है. उतनी ही जितनी कि आमिर खान का कोकोकोला का विज्ञापन करना और मेधा पाटकर के साथ धरने पर बैठना.

आमिर खान का भारतीय फिल्मों के विज्ञापन में बहुत बड़ा योगदान है. यहां उनकी मेधा चरम पर है. उन्होंने विज्ञापन की लाइने ही बदल दी हैं. हाल ही में ‘‘पीपली लाइव’’ के रिलीज होने के पहले ही टाइमिंग सेंस से भरे उनके गाने और नत्था का स्टारडम लोगों की जुबान पर छा गया. ‘पीपली लाइव’ की जगह नत्था और ‘महंगाई डायन खाय जात है’ लोगों के सिर चढ़कर बोल रहे हैं. जो अंतत: ओंकारदास मानिकपुरी का अभिनय या महंगाई का प्रतिरोध न होकर सिर्फ और सिर्फ ‘‘पीपली लाइव’’ का ही विज्ञापन है.


नत्था से खास मुलाकात सारे चैनलों से प्रसारित हो रही है. नत्था कैटरीना कैफ, दीपिका पादुकोण से मिलना चाहता है, यह भी एक खबर है. दीपिका नत्था से मिलने आती है, यह भी एक खबर है. नत्था सचमुच सोच रहा है कि दीपिका उससे मिलने आयी है क्योंकि वह एक बहुत बड़ा स्टार बन गया है. यह एक ऐसा भ्रम है जो ओंकारदास मानिकपुरी के शेष जीवन को कहीं त्रासद न बना दे. और भविष्य में ईश्वर न करे कि ओंकारदास मानिकपुरी खुद एक खबर बनें और एक दिन छत्तीसगढ़ के स्थानीय अखबार में छपे- एक था नत्था जिसने सन् 2010 में बहुत कम बजट की फिल्म ‘पीपली लाइव’ में आमिर खान की जगह केंद्रीय भूमिका निभाई थी और उस फिल्म ने रिकार्ड बिजनेस किया था और अखबारों की खबर पर ओंकारदास मानिकपुरी की आर्थिक बदहाली पर छत्तीसगढ़ सरकार 25-50 हजार की राशि देने की घोषणा कर दे.

आमिर खान के पास भारतीय समाज की कमजोरियों का अच्छा अध्ययन है. वे जानते हैं कि इस विस्मृति के दौर में चेतना से कटे-पिटे समाज में क्या और किस तरह परोसा और बेचा जा सकता है. इस संदर्भ में उनकी पिछली फिल्में भी गौरतलब हैं.

आमिर की एक बहुचर्चित फिल्म है ‘तारे जमीं पर’. इस फिल्म का हाल और भी भयानक है. जिसमें शारीरिक और मानसिक रूप से कमजोर बच्चों के लिए कहीं कोई जगह नहीं है, जब तक वह पेंटिंग प्रतियोगिता में प्रथम स्थान न पा जाये. आमिर के यहां सिर्फ और सिर्फ श्रेष्ठ के लिए जगह है. सामान्य, सहज जीवन के लिए नहीं. प्रथम स्थान तो कोई एक ही पा सकता है. सभी नहीं. पूरा समाज तो सहज प्रेममय होकर ही रह सकता है. ईश्वर का शुक्र है कि ‘तारे जमीं पर’ में सिर्फ एक ही बच्चा था वरना उसी तरह के दूसरे बच्चों का क्या होता?

वे लड़के जो मेहनत से मुंह चुराते, दूर भागते अराजक और उद्दंड हैं, जिनकी तादात बहुत ज्यादा है, उनके लिए थ्री इडियट्स राहत पैकेज की तरह है, जिसमें उनकी हरकतें जीवंत और भविष्यमयी दिखायी गई है.


अरे भाई! जब प्रथम ही आना है, वहीं ही पहुंचना है जो समाज में पहले से मान्य है तो तब इतनी भावुकता क्यों? यह सब अलग और मानवीय होने का ड्रामा क्यों? सामान्य, सहज जीवन की चाह का क्या होगा? उसे कहां जगह होगी? किस रचाव में? कम से कम आमिर खान के यहां तो नहीं ही.

आमिर खान की एक और सफलतम फिल्म ‘थ्री इडियट्स’ का हीरो रैंचो कैसे डिग्री किसी दूसरे के नाम करके भी किस तरह सबसे बड़ा वैज्ञानिक, सबसे बड़ी कंपनी का मालिक और सबसे दूर-दराज के प्रायोगिक स्कूल का निर्देशक एक साथ, यकायक बन जाता है.

देखा जाये तो यह एक तरह का ईश्वरीय प्रगटन है, जो भारतीय जनमानस की कमजोरी है. वे लड़के जो मेहनत से मुंह चुराते, दूर भागते अराजक और उद्दंड हैं, जिनकी तादात बहुत ज्यादा है, उनके लिए यह फिल्म राहत पैकेज की तरह है, जिसमें उनकी हरकतें जीवंत और भविष्यमयी दिखायी गई है. यह अलग और कठोर बात है कि पढ़ाई छोड़ कर या पूरी करके वे न तो सबसे बड़े वैज्ञानिक बनेंगे और न ही सबसे बड़ी कंपनी के मालिक और न ही कहीं स्कूल में नन्हों को देने के लिए उनके पास कुछ ऐसा होगा कि वे उन्हें दे सकें. वे अवारा बदहाली में भटकेंगे और उस समय उन्हें यह गाना भी याद नहीं आयेगा- ‘आल इज वेल.’

रविवार, 29 अगस्त 2010

पछाड़ दिया मेरे आस्तिक ने...


-
बाबा नागार्जुन

शुरू-शुरू कातिक में
निशा शेष ओस की बून्दियों से लदी हैं
अगहनी धान की दुद्धी मंजरियाँ
पाकर परस प्रभाती किरणों का
मुखर हो उठेगा इनका अभिराम रूप ………
टहलने निकलता हूँ ‘परमान’ के किनारे-किनारे
बढ़ता जा रहा हूँ खेत की मेडों पर से, आगे
वापस जा मिला है अपना वह बचपन
कई युगों के बाद आज
करेगा मेरा स्वागत
शरद का बाल रवि…

पूर्वांचल प्रवाही ‘परमान’ की
द्रुत-विलंबित लहरों पर
और मेरे ये अनावृत चरण युगल
करते रहेंगे चहलकदमी
सैकत पुलिन पर

छोड़ते जाएँगे सादी-हलकी छाप….
और फिर आएगी, हँसी मुझे अपने आप पर
उतर पडूँगा तत्क्षण पंकिल कछार में
बुलाएंगे अपनी ओर भरी खुरों के निशान
झुक जाएगा ये मस्तक आनायास
दुधारू भैस की याद में….
यह लो, दूर कहीं शीशम की झुरमुट से
उडाता आया है नीलकंठ
गुज़र जाएगा ऊपर-ही-ऊपर
कहाँ जाकर बैठेगा?

इधर पीछे जवान पाकड़ की फुनगी पर
या उस बूढे पीपल की बदरंग डाल पर ?
या की, उडाता ही जाएगा
पहुंचेगा विष्णुपुर के बीचोबीच
मन्दिर की अंगनाई में मौलसिरी की
सघन पत्तियोंवाली टहनियों की ओट में
हो जाएगा अद्रश्य, करेगा वहीं आराम!
जाने भी दो,
आओ आज जी भरकर
उगते सूरज का अरुण-अरुण पूर्ण-बिम्ब
जाने कब से नहीं देखा था शिशु भास्कर
आओ रत्नेश्वर, कृतार्थ हो हमारे नेत्र !
देखना भाई, जल्दी न करना
लौटना तो है ही
मगर यह कहाँ देखता हूँ की रोज़-रोज़
सोते ही बिता देता हूँ शत-शत प्रभात
छूट-सा गया है जनपदों का स्पर्श
(हाय रे आंचलिक कथाकार!)

आज मगर उगते सूरज को
देर तक देखेंगे, जी भरकर देखेंगे
करेंगे अर्पित बहते जल का अर्थ
गुनगुनायेंगे गद्गद् हो कर -
“नमो भगवते भुवन-भास्कराय
ओ नमो ज्योतिश्वराय
ओ नमः सूर्याय सविते…”
देखना भाई रत्नेश्वर, जल्दी न करना.
लौटेंगे इत्मीनान से
पछाड़ दिया है आज मेरे आस्तिक ने मेरे
नास्तिक को
साक्षी रहा तुम्हारे जैसा नौजवान ‘पोस्ट-ग्रेजुएट’
मेरे इस ‘डेविएशन’ का !
नहीं, मैं झूठ कहता हूँ ?
मुकर जाऊँ शायद कभी….
कहाँ! मैंने तो कभी झुकाया नहीं था
मस्तक!
कहाँ! मैंने तो कभी दिया नहीं था अर्घ
सूर्य को!
तो तुम रत्नेश्वर, मुस्कुरा-भर देना मेरी उस
मिथ्या पर.

मां होने के मायने


-सुनील शर्मा

मां
और गुरू दो ऐसे रिश्ते है जिनका मानव जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ता है. बालक को मनुष्यता का पाठ पढ़ाने वाले मां और गुरू के बराबर किसी अन्य रिश्तों की कल्पना तक नहीं की जा सकती हालांकि वक्त के साथ अब इन रिश्तों के मायने भी बदल गए है. जहां मां और पुत्र को लेकर कई तरह के मामले सामने आए है, वहीं गुरू-शिष्य परंपरा आधुनिकता की बलिवेदी पर कुर्बान हो चुकी है.


जब शिशु जन्म लेता है तो उसे मां ही प्यार देती है. कुछ बड़ा होने पर शिशु द्वारा बोले जाने वाला पहला शब्द मां ही होता है. स्कूल के पहले मां ही शिक्षक की भूमिका निभाती है और वह उसके गुरु की तरह उसे अच्छी बुरी चीजों को बतलाती है. मां होना एक अभिमान की बात तो है ही साथ ही एक औरत की संपूर्णता भी मां बनने में ही मानी जाती है.

यह भी कहा जाता है कि औरत अपने पूरे जीवन में आत्मगौरान्वित रहती है और यदि जीवन में सफलता न भी मिले तो वह उतनी निराश नहीं होती, जितना कि पुरुष क्योंकि नारी नर को जन्म देती है जबकि पुरूष हमेशा कुछ न कुछ क्रिएट करने में लगा रहता है, अर्थात वह अपने कौशल से कुछ नया करने का प्रयास करता है दरअसल उसके भीतर कुछ जन्म देने की उत्कंठा सदा विद्यमान होती है. और जब सफलता नहीं मिलती तो वह उदास हो जाता है.

मां को श्रध्दा और विश्वास की संज्ञा दी जाती रही है और मां का स्थान ईश्वर के पहले भी बताया जाता है. मां में ईश्वरत्व के दर्शन होते है.

पर बदलते वक्त के साथ ऐसा लगता है कि मां होने के मायने भी बदल गए है. जहां नैतिक मूल्यों में गिरावट आई है वहीं सच-झूठ, न्याय-अन्याय और आदर्श-सिध्दांत का अर्थ भी बदल गया है.

अब मां भी अपने बच्चों के गलत कार्यों को सही ठहराने में पीछे नहीं है. मां-पुत्र के रिश्तों को समझाने और एक संपूर्ण ग्रामीण संघर्ष को दर्शकों तक पहुंचाने का काम किया था जाने-माने निर्देशक मेहबूब खान. पहली बार रूपहले पर्दे पर फिल्म मदर इंडिया के द्वारा.

इस फिल्म का खयाल जब भी जेहन में आता है तो लगता है कि काश आजकल की मां ऐसी होती. 1957 में रिलीज हुई इस फिल्म में शानदार अदाकारी करने वाली नरगिस भले ही पहले इससे पहले कई हिट फिल्मों में काम कर चुकी थी लेकिन उनके इस फिल्म की एक्टिंग को कोई कभी नहीं भूल सकता.

फिल्म के अंतिम दृश्य में वह अपने ही बेटे को इसलिए गोली मार देती है, क्योंकि वह गांव की इजत(औरत) के साथ जबरदस्ती करता है. फैड्रिकों फैलिनी की फिल्म नाईट और कैबेरिया से महज एक वोट पीछे रहने वाले इस फिल्म ने बेस्ट फारेन लैगवेंज फिल्म के लिए एकेडमी अवार्ड भी जीता.

मां और पुत्र के बीच प्रेम को लेकर कई फिल्मे बनी, साहित्यकारों ने कई साहित्य रचे और विविध रूपों व माध्यमों के आधार पर इस रिश्ते के अर्थ समझाए गए. कृष्ण-यशोदा पर सूरदास ने इतना लिखा कि उन्हें वात्सल्य रस का कवि कहा जाने लगा. आधुनिकता के इस दौर में मां-बेटे के रिश्तों में खटास आ गई. गाहे-बगाहे समाचार-पत्रों में प्रकाशित होने वाली खबरों को पढ़कर दिल दहल उठता है. कभी खबर आती है कि शराबी बेटे ने रुपए न देने पर मां की हत्या कर दी, तो कई बार बेहद अमर्यादित बाते निकलकर सामने आती है.

इस पचड़े में न पड़ते हुए मैं पिछले कुछ समय से आई बुराई की ओर ध्यान आकृष्ट करना चाहूंगा. हो यह रहा है कि अब मां पहले की मां की तरह नहीं रही. पहले मां पुरुष पर पूरी तरह आश्रित होती थी और पुत्र की रक्षा के लिए अपने पति से भी लड़ लेती थी. पर तब पुत्र इतनी बड़ी गलती कभी नहीं करते थे कि उसे माफ करने में पिता या समाज को कोई परेशानी हो.

नारी सशक्तिकरण ने मां की भूमिका को भी बदलकर रख दिया है. अब की मांओं के पास बच्चों को दूध पिलाने का समय भी नहीं है. हां भले ही वह स्तनपान दिवस मनाने के लिए तत्पर रहेंगी, लेकिन वह खुद ऐसा नहीं करती. ऐसा करने से उसे फीगर खराब होने का खतरा रहता है.

पहले मां अपने बच्चों को स्कूली शिक्षा से पहले ही अपने घरों में ही पिता, शिक्षक, बड़ों का आदर-सत्कार करने की शिक्षा देती थी और आज भी कुछ मां ऐसा करती होंगी पर अब तो कम ही ऐसा होता है जब बच्चों के मन में बड़े-बुर्जूगों के प्रति आदरभाव हो. इसकी लिए कौन दोषी है. एकल परिवार ने जहां आपसी रिश्तों की जड़े काट दी वहीं बच्चों को सुसंस्कृत नहीं किए जाने के कारण प्रेम लुप्त होता जा रहा है.

पहले गुरु का अर्थ ज्ञान देने वाले से लगाया जाता है अब यह बोलचाल की भाषा मजाक की तरह उपयोग में लाया जाता है. संस्कृत की भाषा के इस शब्द का दुरुपयोग एक बड़ी समस्या है. मां अपने बच्चों से गुरु का आदर-सम्मान करने कहती थी जबकि अब यदि बच्चा शिक्षक का सिर फोड़कर आए तो मां खुद को गौरान्वित महसूस करेगी, सोचेगी ठीक किया.इस बात से एक बात याद आती है.

पिछले करीब छह महीने से छत्तीसगढ़ स्थित गुरू घासीदास केंद्रीय विश्वविद्यालय में एक ऐसा मामला सुर्खियों में है जो यह बताता है कि कैसे गुरु-शिष्ट परंपरा का अपघटन हो रहा है. एक महिला सांसद का पुत्र यूनिवर्सिटी का छात्र था. चूंकि घटना के दिन कक्षा शुरू हो चुकी थी और एक शिक्षक तन्मयतापूर्वक छात्रों को पढ़ा रहे थे, तभी महिला सांसद का पुत्र जो उस कक्षा का छात्र था बगैर इजाजत के कक्षा में घुस आया. इस पर जब शिक्षक ने आपत्ति जताई तो छात्र ने गुस्से में आकर शिक्षक के ऊ पर कुर्सी फेंकते हुए हमला बोल दिया.
इससे शिक्षक घायल हो गए.

एक अन्य शिक्षक के साथ भी उसने मारपीट और गाली-गलौज किया. इसके बाद पूरी यूनिवर्सिटी में बात आग की तरह फैल गई और शिक्षकों ने लामबंद होकर छात्र के खिलाफ पुलिस में शिकायत करने की अपील यूनिवर्सिटी प्रबंधन से की. प्रभावशाली महिला का पुत्र होने के बाद भी उसकी शिकायत पुलिस में की गई. इसके बाद तो जैसे मामला और उलझ गया. महिला सांसद ने अपने पुत्र का बचाव करते हुए शिक्षकों के खिलाफ काउंटर केस दर्ज कर दिया.

इसके बाद यूनिवर्सिटी के प्राक्टोरियल बोर्ड (अनुशासन समिति)ने उक्त छात्र को निष्कासित करने का नोटिस जारी किया. इसके खिलाफ छात्र के वकील ने हाईकोर्ट में में याचिका दायर कर छात्र के खिलाफ लगाए गए आरोपों को गलत बताया. हाईकोर्ट ने दोनों पक्षों को सुना. इसके बाद कोर्ट ने छात्र को आदेश दिया कि वह शिक्षकों से अपने किए कि माफी मांगे.

छात्र यदि माफी मांग भी ले तो तो क्या शर्मसार हुई गुरू-शिष्य परंपरा को दोबारा सम्मानित किया जा सकता है और क्या इस घटना को भुलाया जा सकता. पर यदि इतने में ही मामला शांत हो जाता तो बात अलग थी. मामले का पटाक्षेप करने की बजाय अपने अहम की तुष्टि के लिए महिला सांसद ने यूनिवर्सिटी के अफसरों पर अनियमितता व भ्रष्टाचार,क्षेत्रीय लोगों की उपेक्षा सहित कुल नौ बिंदुओं में कई गंभीर आरोप लगा दिए.

उच्च स्तरीय जांच के लिए मानव संसाधन एवं विकास मंत्रालय को पत्र भेजा. बताया जा रहा है कि दूसरी बार मनोनीत सांसद बनने वाली इस कांग्रेस नेत्री को मानव संसाधन एवं विकास मंत्रालय के मंत्री कपिल सिब्बल ने मामले की जांच करने का आश्वासन दिया है. मजेदार बात तो यह है कि सांसद ने पुत्र मोह में आकर यूनिवर्सिटी में अनुशासनहीनता की शिकायत की है जबकि वह स्वयं जानती है कि अनुशासनहीनता की शुरूआत उसके पुत्र द्वारा ही की गई थी.

लगता है कि सांसद ने मेहबूब खान की फिल्म मदर इंडिया नहीं देखी, यदि देखी होती तो हो सकता है कि उन्हें मां होने के मायने समझ में आते. मां होने का मतलब यह नहीं है कि बच्चे की हर जिद पूरी की जाए. फिर चाहे वह शिक्षक का सिर फोड़े या किसी लड़की का बलात्कार.

जिद पूरी करने से बच्चे जिद्दी हो जाते है. कई बार पासा उलटा भी पड़ जाता है. भले ही नैतिक गिरावट आई है और गुरू-शिष्ट परंपरा जैसी कोई बात अब नहीं रही लेकिन इसका यह मतलब भी नहीं है कि ज्ञानदाता को जुते-चप्पल से सम्मानित किया जाए.

ऐसा करने से किसी और का नहीं बल्कि खुद का नुकसान होगा और मां ही ऐसे घृणित कार्य में अपने पद का दुरूपयोग करते हुए सहयोग करेगी तो फिर पता नहीं क्या होगा.