सोमवार, 30 अगस्त 2010

पीपली लाइव का सीधा प्रसारण




रामकुमार तिवारी

इधर कुछ महीनों से मीडिया में पीपली लाईव ने अपनी ऐसी धमक बनाई है कि देश का एक बड़ा वर्ग इस फ़िल्म पर न्यौछावर हुआ जा रहा है. आश्चर्य नहीं कि फिल्म समीक्षक जय प्रकाश चौकसे इस फिल्म की स्तुति में यह कह रहे हैं कि " किसी भी नेता के भाषण या हमारे महाविद्यालयों के शोध पत्र से ज्यादा सारगर्भित और महत्वपूर्ण है यह फिल्म. इसके लिए अनुषा रिजवी को डॉक्टरेट की उपाधि दी जानी चाहिये."


‘पीपली लाइव’ पर जय प्रकाश चौकसे की यह टिप्पणी चौकस लगी कि इसमें किसी नेता के भाषण से ज्यादा सार है. बस ! इससे ज्यादा नहीं.

देखते-देखते यह कैसा दौर आ गया कि एक सनसनी का तुमार कुछ इस तरह ताना जा सकता है कि वह महानता की जगह घेर ले और समाज बौरा जाये. लगभग दो लाख किसानों की आत्महत्याओं को इस तरह तयशुदा मजाक बना दिया जाये कि वे सोच-समझकर परिवार, समाज में लंबे समय तक बातचीत करके बेहद व्यवसायिक रूप से मुआवजा के लिए ही की गई है. जीवन का कैसा अवमूल्यन है और मृत्यु का कैसा अपमान. आत्महत्या की त्रासदी को एक आर्थिक विकल्प के रूप में किस तरह घटा दिया गया है.

फिल्म निर्माण रचनात्मक अवदान है न कि एक सनसनी मात्र कि देखो! हमने किस तरह मीडिया, व्यवस्था और राजनीति को उघाड़ दिया है. बस हो गया हमारे कर्तव्य का निर्वहन. क्या एक कला माध्यम को देय सिर्फ इतना ही हो सकता है ?

हम आमिर खान या आमिर खान जैसे फिल्मकारों से ईरान के महान फिल्मकार अब्बास कियारोस्तामी की तरह किसी ऐसी फिल्म की उम्मीद नहीं कर सकते जो अपने मुल्क और उसकी जनता से बेपनाह मुहब्बत करते हुए एक-एक शॉट्स और एक-एक फिल्म इस तरह रचता हो, जिसमें उनके देश ईरान और उनके जन-जन की आत्मा का सौंदर्य अपनी मानवीय गरिमा के साथ प्रकट होते हैं. कुछ यूं कि दूर देशों के दर्शक भी उनके देश ईरान और उसकी जनता से प्रेम करने लगते हैं और उनके अंदर भी ईरान को देखने और उसकी जनता से मिलने की इच्छा जन्म लेने लगती है.

इस समय ईरान के हालात बेहद खराब है. राजनीति के हुक्मरानों ने अब्बास कियारोस्तामी साहब को उन्हीं के घर में नजरबंद कर दिया है. उन पर फिल्म न बनाने की पाबंदी भी लगा दी गई है. अमरीका सहित पूरे दुनिया के दरवाजे उनके लिए खुले हैं, फिर भी अब्बास साहब अपना घर और मुल्क छोड़कर नहीं जाना चाहते. क्या करें ? उन्हें नींद अपने मुल्क और अपने घर में ही आती है. अपने देश और अपनी जनता से ऐसी मुहब्बत का जज्बा ही ऐसी रचनात्मकता को जन्म दे सकता है.....खैर छोडिये. फिलहाल तो हम अपने ही देश की फिल्मों और फिल्म निर्माताओं की बात करें.

किसानों की पृष्ठभूमि पर बनी महबूब खान की फिल्म ‘मदर इंडिया’ को तो कम से कम हमारी दृष्टि चेतना का हिस्सा होना ही चाहिये. बैंक ऋण की जगह पुरातन महाजनी पंजे में फंसे किसान परिवार की गाथा का कैसा फिल्मांकन था ? ‘‘पीपली लाइव’’ के नत्था की परिस्थिति मदर इंडिया की अबला नारी से ज्यादा बद्दतर तो नहीं थी. लेकिन उसमें जीवन कैसे संभव हुआ, हर सर्वहारा को थामता हुआ हिम्मत देता हुआ. वह फिल्म के माध्यम से हमारा जागरण काल था. जिजीविषा, संघर्ष, आम गौरव की फिल्मी गाथा ने किस तरह मूल्यों का सृजन किया था. इतनी फिल्मी लंबी यात्रा के बाद उसी परिस्थिति पर बनी फिल्म ‘‘पीपली लाइव’’ का ट्रीटमेंट हमें सोचने पर विवश करता है. हम कब कहां से कहां आ गये और ऊपर से सफलता, महानता का इतना शोर ?

'पीपली लाइव' में न तो आत्यहत्या के मनोविज्ञान की समझ है और न ही समाज के बहुआयामों की.


कला में सिर्फ भौडा कटु यथार्थ ही सब कुछ नहीं होता, रचना अपने होने में जो अतिरिक्त, जो नहीं है, उसे सृजित करती है, जोड़ती, अलगाती है. तभी तो वह रचना है, कला है, फिल्म है.

आइडिया में कभी संवेदना नहीं होती. सिर्फ एक होशियारी होती है. जो अपनी सामाजिक भूमिका के लिए एक पेशेवर संवेदना का स्वांग रचकर समाज की भावनाओं की मार्केटिंग करती है. वह समाज को झकझोरने की जगह एक क्षणिक उत्तेजना पैदा करके एक अभ्यस्ती बनाने लगती है.

‘‘पीपली लाइव’’ में न तो आत्यहत्या के मनोविज्ञान की समझ है और न ही समाज के बहुआयामों की. फिल्म के लिहाज से भी यह आमिर खान की सबसे कमजोर फिल्म है. फिल्म की लय जगह-जगह टूटी हुई है. कहीं-कहीं तो वह फिल्म का कोलॉज लगती है.
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देश में फिल्मी जगत की जो दुर्दशा है, उसमें निश्चित तौर पर आमिर खान इस दशक के सबसे सफल निर्माता है, लेकिन बड़े नहीं है. बड़ा होना और सफल होना दो अलग-अलग बातें है. उतनी ही जितनी कि आमिर खान का कोकोकोला का विज्ञापन करना और मेधा पाटकर के साथ धरने पर बैठना.

आमिर खान का भारतीय फिल्मों के विज्ञापन में बहुत बड़ा योगदान है. यहां उनकी मेधा चरम पर है. उन्होंने विज्ञापन की लाइने ही बदल दी हैं. हाल ही में ‘‘पीपली लाइव’’ के रिलीज होने के पहले ही टाइमिंग सेंस से भरे उनके गाने और नत्था का स्टारडम लोगों की जुबान पर छा गया. ‘पीपली लाइव’ की जगह नत्था और ‘महंगाई डायन खाय जात है’ लोगों के सिर चढ़कर बोल रहे हैं. जो अंतत: ओंकारदास मानिकपुरी का अभिनय या महंगाई का प्रतिरोध न होकर सिर्फ और सिर्फ ‘‘पीपली लाइव’’ का ही विज्ञापन है.


नत्था से खास मुलाकात सारे चैनलों से प्रसारित हो रही है. नत्था कैटरीना कैफ, दीपिका पादुकोण से मिलना चाहता है, यह भी एक खबर है. दीपिका नत्था से मिलने आती है, यह भी एक खबर है. नत्था सचमुच सोच रहा है कि दीपिका उससे मिलने आयी है क्योंकि वह एक बहुत बड़ा स्टार बन गया है. यह एक ऐसा भ्रम है जो ओंकारदास मानिकपुरी के शेष जीवन को कहीं त्रासद न बना दे. और भविष्य में ईश्वर न करे कि ओंकारदास मानिकपुरी खुद एक खबर बनें और एक दिन छत्तीसगढ़ के स्थानीय अखबार में छपे- एक था नत्था जिसने सन् 2010 में बहुत कम बजट की फिल्म ‘पीपली लाइव’ में आमिर खान की जगह केंद्रीय भूमिका निभाई थी और उस फिल्म ने रिकार्ड बिजनेस किया था और अखबारों की खबर पर ओंकारदास मानिकपुरी की आर्थिक बदहाली पर छत्तीसगढ़ सरकार 25-50 हजार की राशि देने की घोषणा कर दे.

आमिर खान के पास भारतीय समाज की कमजोरियों का अच्छा अध्ययन है. वे जानते हैं कि इस विस्मृति के दौर में चेतना से कटे-पिटे समाज में क्या और किस तरह परोसा और बेचा जा सकता है. इस संदर्भ में उनकी पिछली फिल्में भी गौरतलब हैं.

आमिर की एक बहुचर्चित फिल्म है ‘तारे जमीं पर’. इस फिल्म का हाल और भी भयानक है. जिसमें शारीरिक और मानसिक रूप से कमजोर बच्चों के लिए कहीं कोई जगह नहीं है, जब तक वह पेंटिंग प्रतियोगिता में प्रथम स्थान न पा जाये. आमिर के यहां सिर्फ और सिर्फ श्रेष्ठ के लिए जगह है. सामान्य, सहज जीवन के लिए नहीं. प्रथम स्थान तो कोई एक ही पा सकता है. सभी नहीं. पूरा समाज तो सहज प्रेममय होकर ही रह सकता है. ईश्वर का शुक्र है कि ‘तारे जमीं पर’ में सिर्फ एक ही बच्चा था वरना उसी तरह के दूसरे बच्चों का क्या होता?

वे लड़के जो मेहनत से मुंह चुराते, दूर भागते अराजक और उद्दंड हैं, जिनकी तादात बहुत ज्यादा है, उनके लिए थ्री इडियट्स राहत पैकेज की तरह है, जिसमें उनकी हरकतें जीवंत और भविष्यमयी दिखायी गई है.


अरे भाई! जब प्रथम ही आना है, वहीं ही पहुंचना है जो समाज में पहले से मान्य है तो तब इतनी भावुकता क्यों? यह सब अलग और मानवीय होने का ड्रामा क्यों? सामान्य, सहज जीवन की चाह का क्या होगा? उसे कहां जगह होगी? किस रचाव में? कम से कम आमिर खान के यहां तो नहीं ही.

आमिर खान की एक और सफलतम फिल्म ‘थ्री इडियट्स’ का हीरो रैंचो कैसे डिग्री किसी दूसरे के नाम करके भी किस तरह सबसे बड़ा वैज्ञानिक, सबसे बड़ी कंपनी का मालिक और सबसे दूर-दराज के प्रायोगिक स्कूल का निर्देशक एक साथ, यकायक बन जाता है.

देखा जाये तो यह एक तरह का ईश्वरीय प्रगटन है, जो भारतीय जनमानस की कमजोरी है. वे लड़के जो मेहनत से मुंह चुराते, दूर भागते अराजक और उद्दंड हैं, जिनकी तादात बहुत ज्यादा है, उनके लिए यह फिल्म राहत पैकेज की तरह है, जिसमें उनकी हरकतें जीवंत और भविष्यमयी दिखायी गई है. यह अलग और कठोर बात है कि पढ़ाई छोड़ कर या पूरी करके वे न तो सबसे बड़े वैज्ञानिक बनेंगे और न ही सबसे बड़ी कंपनी के मालिक और न ही कहीं स्कूल में नन्हों को देने के लिए उनके पास कुछ ऐसा होगा कि वे उन्हें दे सकें. वे अवारा बदहाली में भटकेंगे और उस समय उन्हें यह गाना भी याद नहीं आयेगा- ‘आल इज वेल.’

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