गुरुवार, 30 दिसंबर 2010

हम अधूरे हैं.



सुनील शर्मा

मैं अधूरा हूँ, तुम अधूरे हो,
नदी, नाले, पहाड़, वन सब अधूरे हैं,
निर्मला काकी, बंशी की भौजी,
मास्टरजी और उनका बेटा भी अधूरे है,

अधूरा है कुए का मीठा पानी,
और सौ बरस वाली बुढ़िया नानी.
छन्नू धोबी और उसके पड़ोस का पहलवान
रामू काका ,साहूकार और बच्चे शैतान,
गलियाँ, चौराहे और हर एक का मकान,
सब अधूरे है.

काली अँधेरी रात, दिन का प्रकाश,
हरी भरी धरती और नीला आकाश,
गुमसुम पेड़,चहचहाते पंछी,
बहती नदी,
सब अधूरे है.

आधे-अधूरे वाले मोहन राकेश भी अधूरे थे.
अब तक मैं जिससे भी मिला,
वो भी अधूरे थे,
खैर कोई बात नहीं,

तू भी तो पूरा नहीं हमारे बगैर,
हम आपस में मिलकर कुछ हद तक सही
पूरे होने का झूठा एहसास तो करते हैं,
तू तो उतना भी नहीं कर पाता,

फिर मालिक, खुदा, भगवान होने का क्या फायदा,
तू बगैर फायदे के कुछ भी करता होगा
हम तो अगरबत्ती भी मकसद से जलाते है.
हम अधूरे हैं.

रविवार, 26 दिसंबर 2010

समाचारों का अपराधीकरण

-सुनील शर्मा

बिलासपुर जिले में नक्सलियों ने अपने पांव पसार दिये है, नक्सली ग्रामीणों को धमका रहे हैं, वे गांवों में बैठकें कर रहे हैं, वे ग्रामीणों को सरकार की योजनाओं के खिलाफ भडक़ा रहे हैं, साथ देने उन पर दबाव डाल रहे हैं.
..... कुछ ऐसा ही प्रकाशित किया जा रहा है समाचार पत्रों में है. परंतु हकीकत इन भ्रामक खबरों से परे हैं. बिलासपुर में नक्सल समस्या जैसी कोई बात नहीं है यह हम नहीं बल्कि पुलिस विभाग कह रहा है. जबकि अखबारों में पुलिस वालों के हवाले से ही कई बार समाचार प्रकाशित किया जाता है कि बिलासपुर के जंगली इलाके नक्सलियों के नये ठिकाने बनते जा रहे हैं.

सच क्या है, इसे समझने की जरूरत है.

माना जा रहा है कि यह एक ऐसी सोची समझी चाल तहत किया जा रहा है. इस अफवाह के पीछे शराब की बोतल और चंद रुपयों में अपनी कलम बेचने वाले तथाकथित पत्रकार और डरपोक पुलिसकर्मियों की मिलीभगत होने का संदेह है. समाचारों के इस तरह के अपराधीकरण के लिए वे दोषी है.
इस तरह के अफवाह फैलाये जाने का एकमात्र कारण यह है कि पुलिस की वर्दी में लिपटे ऐसे शरीरधारियों की इस महकमे में कमी नहीं है जो अपने फर्ज से गद्दारी करने के लिए हर हमेशा तैयार रहते हैं और पैसे के साथ ही जीवन के प्रति उनका मोह बढ़ गया है.

पुलिसकर्मी नक्सल प्रभावित इलाकों में ड्यूटी नहीं करना चाहते, क्योंकि वे जान जोखिम में डालने वाला खेल समझते हैं हालांकि यह सच है बस्तर, दंतेवाड़ा, राजनांदगांव, बीजापुर सहित अन्य नक्सल प्रभावित इलाकों में ड्यूटी करना मौत को गले लगाने की तरह ही है लेकिन अगर जनता की सुरक्षा नहीं करनी थी तो फिर हौसले, जज्बे और साहस से भरा यह विभाग क्यों उन्होंने ज्वाइन किया.

फिर क्या नौकरी करने के पीछे उगाही, तोड़ी और हफ्ता वसूली जैसे कुत्सित उद्देश्य शुरू से ही उनके दिमाग में करवटें ले रहे थे या फिर उनके मन में हर तरह के समझौते करके धनार्जन की ललक ने ही उन्हें खाकी वर्दी पहनने मजबूर किया. इससे पहले कि हम इस पर मुद्दे पर और बात करें हमे बिलासपुर जिले की भौगोलिक स्थिति के बारे में जानना आवश्यक हो जाता है.

18वीं शाताब्दी में मराठों द्वारा अधिकार किये जाने से पहले, बिलासपुर गोंड राज्य की राजधानी था. में 1867 में नगरपालिका गठित की गई थी. नदी किनारे मछुवारो की छोटी सी बस्ती थी. किंवदंती के अनुसार एक मछुवारे की स्त्री बिलासा के नाम पर ही शहर का नाम बिलासपुर पड़ा हैं. बिलासपुर प्राचीनकाल में दक्षिण-कोसल में सम्मिलित
था.
.

बिलासपुर की जनसंख्या (2001) 2,65,178, ज़िले की कुल जनसंख्या 19,93,042 है. बिलासपुर में कृषि व्यवसाय होता है. और यह चावल आटे की मिल, आरा मिल और चमड़ा निर्माण का व्यावसायिक केंन्द्र भी है.

यदि बिलासपुर शहर क्षेत्रफल की दृष्टि से कुछ और बड़ा होता और सभी ने एक स्वर में राजधानी बनाने को लेकर आवाज उठाई होती, जनआंदोलन किया होता तो छत्तीसगढ़ के गठन के साथ ही इस शहर को राज्य की राजधानी का दर्जा प्राप्त हो जाता. खैर राजधानी सही लेकिन पूर्व से ही संस्कारधानी के नाम से प्रचलित इस शहर में हाईकोर्ट की स्थापना के साथ ही शहर को न्यायधानी भी कहा जाने लगा.

बिलासपुर अरपा के तट पर बसा एक ऐसा शहर है जहां जो कोई भी आता है, यहीं का होकर रह जाता है. पड़ोसी जिले मसलन जांजगीर-चांपा और कोरबा पूर्व में बिलासपुर जिले के ही अंग हुआ करते थे और बिलासपुर को संभाग का दर्जा भी प्राप्त था. पेंड्रा, मरवाही, गौरेला, पेंड्रा, कोटा, लोरमी वन्य विकासखंड है जहां आदिवासियों के साथ ही गैर आदिवासी भी निवास करते है. आदिवासियों में बैगाओं की संख्या अधिक है जो कि अचानकमार अभ्यारण्य में विशेष रूप से निवास करते हैं.

अचानकमार अभ्यारण्य जिसका एक खास हिस्सा अब टाईगर रिजर्व का दर्जा प्राप्त कर चुका है, एक सघन वन्य क्षेत्र है जहां कई प्रकार के जंगली जानवरों के साथ ही कई दुर्लभ प्रजाति के पेड़, पौधे और जड़ी-बूटियां पायी जाती है. अचानकमार अभ्यारण्य के भीतर 22 गांव है जहां निवास करने वाले आदिवासियों की संख्या अधिक है.

वर्तमान में टाईगर रिजर्व के नाम पर छह गांवों के करीब एक हजार आदिवासियों का विस्थापन लोरमी के वन्य इलाके में किया गया है. पर विस्थापित आदिवासी खुश नहीं है. उन्हें सामाजिक, सांस्कृतिक के साथ ही कई तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है. यह भी सच है कि दंतेवाड़ा सहित तमाम नक्सल प्रभावित इलाकों में रहने वाले आदिवासी नक्सलियों के चंगुल में फंसे है और वे नक्सलियों से प्रभावित है.

सरकार तो यह भी मानती है कि बड़ी संख्या में आदिवासी नक्सली बनते जा रहे हैं. हालांकि इस बात में सच्चाई कम ही है. नक्सलियों के हौसले पहले से बुलंद हुए है और सरकार के सामने उन्होंने कई तरह की चुनौतियां पेश की है. यहीं कारण है कि सरकार नक्सलियों से शांतिवार्ता चाहती है. हालांकि नक्सली भी अब थक चुके हैं और वे भी सशर्त वार्ता करने के पक्षधर जान पड़ते हैं. यह भी कहा जा रहा है कि नक्सली नये ठिकाने की तलाश कर रहे हैं, क्योंकि उन पर भी केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल सहित राज्य पुलिस का दबाव बढ़ता जा रहा है.

इधर बिलासपुर जिले के वन्य क्षेत्रों में नक्सलियों के दस्तक देने को लेकर जिले में काफी बातें अखबारों के माध्यम से हो रही है. इस जिले को नक्सलियों का नया ठिकाना भी बताया जा रहा है. पर इस बात में सच्चाई नहीं है. आइये जानते हैं कि इस खबर को कैसे और किस तरह प्लांट किया गया और इस खबर ने कैसे विशाल और भयानक अफवाह का रूप ले लिया है.

पिछले 8 महीने से बिलासपुर के एक दैनिक अखबार द्वारा गाहे-बगाहे उलट-पलटकर कर यह समाचार प्रकाशित किया जा रहा है कि जिले में नक्सलियों ने अपने पांव पसार दिए है.अचानकमार अमरकंटक के जंगलों के बीच स्थित गांवों में वे ग्रामीणों को धमका रहे हैं और लोगों को सरकार के खिलाफ भडक़ा भी रहे हैं. इन समाचारों का सच यह है कि जिस पत्रकार द्वारा यह समाचार प्रकाशित किया जा रहा है, वह समाचारों के माध्यम से सनसनी फैलाने में विश्वास रखता है.

सच यह भी है कि समाचार पत्र में नौकरी करने के पहले दिन से ही उसे डेस्क पर काम करने मजबूर होना पड़ा लेकिन कुछ पत्रकारों के नौकरी छोडऩे की वजह से उसे फील्ड रिपोर्टर के रूप में कार्य करने का अवसर मिल गया और सालों के इंतजार के बाद मिले मौके को भुनाने और बॉस के सामने खुद को सर्वश्रेष्ठ रिपोर्टर बताने की इच्छा ने उसे जिले में नक्सलियों के दस्तक जैसी खबरें प्रकाशित करने के लिए दुष्रित किया। इस कार्य में उसका सहयोग उन पुलिस अधिकारियों ने भी दिया जो बस्तर, दंतेवाड़ा या अन्य नक्सली क्षेत्रों में तैनाती नहीं चाहते थे.

जिले में नक्सली होने की बात को इस तरह प्रचारित-प्रसारित किया जा रहा है है ताकि पुलिसकर्मियों को बस्तर जाना पड़े. विभाग को यह लगे कि बिलासपुर जिले में खुद ही नक्सली समस्या है तो फिर यहां के पुलिसकर्मियों को बस्तर भेजने का कोई मतलब नहीं है. यदि यहां के पुलिसकर्मियों को बस्तर या अन्य नक्सल प्रभावित इलाकों में भेजा जायेगा तो यहां की नक्सली समस्या पर कौन काबू पायेगा. इस समाचार ने भयानक रूप तब लिया जब विवेकानंद सिन्हा की जगह जयंत थोर्रात जिले में पुलिस अधीक्षक बनकर आये.

हुआ यह कि उनके बयान के साथ जिले के वन्य गांवों मे नक्सलियों की बैठक लेने संबंधी खबर उसी पत्रकार ने प्रकाशित की जो सनसनी फैलाना अपना एकाधिकार समझता है. इसके बाद शेष दैनिक अखबारों के अपराध संवाददाताओं ने भी खबर छूटने के बाद बॉस से मिलने वाली फटकार के भय से जबरन यह खबर बनाकर संपादक के हवाले कर दिया. अखबारों में प्रकाशित हुआ कि जिले में नक्सलियों ने अपना नेटवर्क बनाना शुरू कर दिया है.

इस तरह की खबरें प्रकाशित होने के बाद केवल शहरी बल्कि ग्रामीण और वन्य क्षेत्रों में भी लोगों के मन में दहशत छाने लगा. नक्सलियों की आमद से जंगल की खामोशी खौफ में तब्दील होने लगी और आदिवासी इस मुद्दे पर आपस में बात करने लगे. बुद्धिजीवियों ने भी इस मामले को गंभीरता से लेते हुए इस विषय पर चर्चा की. बुद्धिजीवियों की सलाह पर ही इस तरह की खबरों की सच्चाई जानने के लिए पुलिस अधीक्षक कार्यालय में 22 जुलाई 2010 को सूचना के अधिकार के तहत बिलासपुर जिले में नक्सल समस्या संदर्भ के साथ जानकारी मांगी गई.

इस पत्र में प्रमुख रूप से यह जानकारी चाही गई कि जिले में कहां-कहां नक्सली देखे गये हैं, उनकी कितनी बैठकें हुई है, फर्जी मुठभेड़ में कितने नक्सली मारे गये हैं, पिछले दस सालों में बिलासपुर जिले में कितने नक्सली गिरफ्तार किये गये हैं, उनसे कौन-कौन सा हथियार बरामद हुआ है, नक्सलियों ने कितने ग्रामीणों और पुलिसकर्मियों की हत्या बिलासपुर जिले में की है. छह बिंदुओं के इस पत्र में सबसे अहम सवाल जिसे लेकर समाचारों में खबरें प्रकाशित की जा रही है का उत्तर जानना चाहा गया. जानकारी चाही गई कि जिले के किन-किन इलाकों में नक्सली सक्रिय है और उनके खिलाफ पुलिस द्वारा क्या-क्या कार्रवाई की जा रही है.

इस पत्र के साथ निर्धारित आवेदन शुल्क दस रुपये (स्टांप क्रमांक 05एए-800224)भी जमा किया गया। 6 अगस्त को इस आवेदन पत्र के संबंध में कार्यवाही करने के लिए पुलिस अधीक्षक कार्यालय के जन सूचनाधिकारी ने जिला विशेष शाखा, व्यक्तिगत ध्यान के प्रभारी को पत्र लिखा और इसकी जानकारी पत्र के माध्यम से आवेदनकर्ता को दी गई. प्रतिवेदन प्राप्त होने के 25 दिन पश्चात 31 अगस्त को आवेदक को पुलिस अधीक्षक कार्यालय ने चाही गई जानकारी पर जवाब बंद लिफाफे में प्रेषित किया जिसमें उल्टे ही आवेदक को पत्र का अवलोकन करने कहा गया. साथ ही यह जानकारी दी गई है कि वर्तमान में बिलासपुर जिले में नक्सली गतिविधि सक्रिय नहीं है, आपके द्वारा चाही गई जानकारी जिले से निरंक है.

इस जवाब के साथ ही कई ऐसे सवाल अधूरे रह जाते हैं जिनका जवाब तो पुलिस वालों के पास है और उन अखबारों के पास जो जिले में नक्सली गतिविधि की सक्रियता की बात करते हैं. इसका अर्थ यह है कि या तो सूचना के अधिकार अधिनियम 2005 के तहत मांगी गई जानकारी का जवाब देते हुए पुलिस महकमे द्वारा झूठ का सहारा लिया जा रहा है या फिर पुलिस के आला अधिकारी अखबारों में प्रकाशित होने वाली झूठी खबरों में नक्सलियों की आमद संबंधी गलत बयानबाजी कर रहे हैं.

एक बात और समझ से परे हैं कि जब सूचना के अधिकार के तहत पुलिस विभाग यह कहता है कि जिले में नक्सली गतिविधि सक्रिय नहीं है तो वे जंगल में नक्सलियों की बैठकों के संबंध में छानबीन करने कैसे पहुंच जाते हैं. उनके साथ अखबारों के फोटाग्राफर भी जाते हैं और बाद में अखबारों में इस संबंध में खबर भी प्रकाशित होती है. यदि जिले में नक्सली नहीं है तो ये सब नौटंकी क्यों, किसके लिए?

इस मामले के साथ ही एक बात और जुड़ी है और वह ये कि हाल ही एक दैनिक अखबार ने नक्सलियों के जिले में आमद के संबंध में खबर प्रकाशित की, जिसमें पुलिस अधीक्षक जयंत थोरात का बयान भी था. जिसमें उन्होंने कहा था कि उन्हें सूचना मिली है कि जिले में नक्सली बैठकें ले रहे हैं. दूसरे ही दिन इसी अखबार में उनका बयान आता है कि जिले में नक्सली बैठकें नहीं ले रहे हैं.

इसका मतलब पुलिस का खुफिया तंत्र पूरी तरह कमजोर हो चुका है. पुलिस अधीक्षक होने के नाते इस कार्यालय के जयंत थोर्रात ही जनसूचनाधिकारी भी है. वे अखबारों में जिले में नक्सलियों की सक्रियता संबंधी बयान देते हैं और सूचना के अधिकार के तहत मांगी जाने वाली जानकारी में नक्सलियों के सक्रिय नहीं होने का झूठ भी बोलते हैं.

श्री थोर्रात दो दिनों तक डिंडौरी और उसके आसपास सर्चिंग करते हैं और मीडिया में यह बयान भी देते हैं कि यह रूटीन है, यदि यह रूटीन है तो अब तक ऐसा किसी भी पुलिस अधीक्षक ने क्यों नहीं किया. इसके कुछ ही दिनों बाद सितंबर के दूसरे सप्ताह में एक खबर गौरेला से आती है कि किसी ने खुद को नक्सली बताकर राइस मिलर से दस लाख रुपए देने की धमकी दी है.

ऐसा नहीं करने पर जान से मारने मिल को जलाने की चेतावनी भी मोबाइल पर व्यवसायी को दी जाती है। राइस मिलर गोपाल अग्रवाल के मोबाइल नंबर 992694500 पर 9752406245 से यह धमकी दी जाती है और नंबर ट्रेस कर पुलिस अंजनी गांव के एक गलत व्यक्ति को थाने पकडक़र भी लाती है और उसे छोड़ दिया जाता है.

किसी ने इस घटना को शरारत का नाम दिया पर व्यवसायी के परिजनों की तो जान पर बन आयी। पुलिस अब नये सिरे से काल डिटेल निकलवाकर जांच-पड़ताल की बात कह रही है. यदि जिले में नक्सलियों की सक्रियता है तो पुलिस अधीक्षक क्यों झूठ बोल रहे हैं और यदि सक्रियता नहीं है तो 48 घंटे की सर्चिंग कैसे कर रहे हैं.

* लेख के साथ सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई जानकारी संबंधी पत्र और पुलिस अधीक्षक कार्यालय का जवाब पत्र को लेकर यदि किसी के मन में संदेह हो तो 9300870352पर फोन कर इसकी एक प्रति प्राप्त करसकते हैं

* लेख कुछ दिनों पहले लिखा गया है, वर्तमान में एसपी श्री थोरात का बिलासपुर से तबादला कर दिया गया है, क्योकि वे पूर्व में जीत टाकिज में सुरक्षाकर्मी की मौत के लिए कही कही जिम्मेदार समझे जा रहे थे क्योकि उनके फिल्म देखकर निकलने पर सुरक्षाकर्मी ने उन्हें पहचानने से इनकार कर दिया था और इस बात से वहाँ मौजूद पुलिस के जवान इतने नाराज हुए कि उसकी पिट
पिट कर हत्या कर दी.इधर श्री थोरात पर यह आरोप भी लग रहा था कि वे हाल ही में हुए पत्रकार सुशील पाठक की हत्या के आरोपियों को नहीं पकड़ पा रहे हैं. यह भी माना जा रहा था कि जब से वे बिलासपुर में एसपी बनकर आये तब से ही यहाँ होने वाली वारदाते होने लगी .
* रेलवे जोन आन्दोलन के बाद यह पहला मौका हैं जब शहर वासी पत्रकार सुशील पाठक की ह्त्या से इतने आक्रोशित हैं.शहर में चरमराती कानून- व्यवस्था को लेकर है कोई चिंतित हैं.
पत्रकार के हत्यारों को पकड़ने कि मांग करते हुए अब तक मौन धरना, मशाल जुलूसनिकली जा चुकी हैं, अब सीबीआई जांच कि मांग की जा रही हैं.