रविवार, 24 अक्तूबर 2010

कब मिलेगी मैला उठाने से मुक्ति... ?

सुनील शर्मा

देश में अभी-अभी सबसे खर्चीला कामन वेल्थ हुआ है।

अगले साल वर्ल्ड कप
भी होगा.

मेरे देश में राम, कृष्ण, विवेकानंद और गांधी भी पैदा हुए और राहुल गांधी भी मेरे ही देश के युवाओं के आइकान है.

मेरे
देश में गंगा, जमुना, सरस्वती की तथाकथित अविरल धारा बहती है. कश्मीर से कन्याकुमारी तक हर साल लाखों विदेशी सैलानियों का हुजूम देश की परंपरा, संस्कृति और सभ्यता की झलक पाने के लिए उमड़ता है. मेरे देश में पक्षी से लेकर पेड़ और इंसान से लेकर भगवान सभी पूजनीय है. कुल मिलाकर इतना सब कहने का मतलब है कि मेरा देश महान है! पर भारत से इंडिया बन चुके मेरे इस देश के उत्तरप्रदेश में ही केवल तीन लाख भाई-बहन ऐसे भी है जो अपने सिर पर मैला ढोते है.

अब है न दुखद बात. पर इससे भी दुखद है इस बुराई को मिटाने के लिए केंद्र और राज्य सरकार द्वारा संचालित तमाम योजनाओं का जो चली तो मेट्रो ट्रेनों की तरह पर पूरा होने से पहले ही फ्लाप हो गई. हैरत की बात तो यह भी है कि जिस देश की सरकार 74 हजार करोड़ रुपए कामन वेल्थ गेम में खर्च करती है और 40 करोड़ का एक गुब्बारा खरीदकर खुद को गौरान्वित महसूस करती है, वहीं सरकार आज तक मैला ढोने वालो को उनकी त्रासदी से निजात नहीं दिला सकी है.

ढेरों वित्तपोषित योजनाएं भरा-भराकर जमीन पर मुंह के बल उल्टे गिर गई लेकिन यह सामाजिक कुप्रथा वर्षों से अंगद की पैर की तरह समाज में गड़ा हुआ है.
पर मैं ऐसा बिल्कुल नहीं कह रहा हूं कि मेरे देश की सरकार ने मैला ढोने की कुप्रथा से मेरे इन भाई-बहनों को निजात दिलाने के लिए कुछ नहीं किया. अरे खर्च किया न वहीं कोई 10 अरब रुपए. अब आप सोचेंगे कि ये ज्यादा हो गया, नहीं मेरे देश की कुछ और खासियत तो मैं आपको बता ही नहीं पाया. यहां चपरासी से लेकर साहब, नेता और मंत्री तक सभी लेते हैं, नहीं समझे ? अरे ! तो रात में लेते हैं, पर मैं जिस लेने की बात कह रहा हूं उसे घूस, रिश्वत, कमीशन, व्यवहार, मिठाई, दिवाली का पटाखा, आदि-आदि नामों से जाना जाता है.

ये दस अरब रुपए कहा गये पता ही नहीं चला. मेरे देश की ब्यूरोक्रेसी से भी पूरे विश्व को यहां तक की अमरीका को सीखना चाहिये. मेरे देश में यदि अफसर मंत्री से मार खा जाये तो वह पूरे देश के साथी अफसरों को मैला ढोने वालों की आड़ में योजनाओं के चलते न जाने कितने हजार अधिकारी-कर्मचारी फलते-फुलते रहे लेकिन मेरे भाई-बहन आज भी उन्हीं आर्थिक और सामाजिक समस्याओं से ग्रस्त और त्रस्त है. वह तबका आज भी वैसा ही जैसा पहले था. भले ही मैला ढोना अपराध हो लेकिन यह बदस्तूर जारी है. वह चाहे लखनउ हो या शाहजहांपुर और फिर चाहे देश का कोई भी इलाका.

मेरा उद्देश्य आप लोगों को मेरे इन शोषित और पीडि़त भाई-बहनों के बारे में और अधिक बताकर दुखी करने का नहीं है बल्कि मैं तो सुबह से एक खबर को लेकर सोच रहा हूं.
एक अखबार के हवाले से छपी खबर के मुताबिक देश में हाथ से मैला उठाए जाने को शर्मनाक परंपरा बताते हुए एनएसी यानी राष्ट्रीय परिषद ने शनिवार को सरकार को कहा है कि इस परंपरा को 2012 के अंत तक पूर्ण रूप से समाप्त किया जाए. परिषद ने यह भी कहा है कि इस परंपरा को साफ-सफाई से जोडक़र देखा जाता है जबकि इसे मानवीय गरिमा के अनुरूप देखे जाने की आवश्यकता है.

मैला उठाने वाले कर्मियों की नियुक्ति करने या कराने वालों को दंडित किये जाने का प्रावधान होने के बाद भी अभी तक किसी भी मामले में किसी को भी दंडित नहीं किया जाना दुखद है.
हुआ यह है कि हाल ही में राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की बैठक हुई जिसमें इस मुद्दे पर गंभीरतापूर्वक विचार किया गया. यह तय किया गया कि 11 वीं पंचवर्षीय योजना के अंत तक सभी राज्य सरकारों, रेलवे सहित केंद्र सरकार के विभागों के साथ समन्वय स्थापित कर इसे पूरी तरह समाप्त कर दिया जाना चाहिये. बैठक में महिलाओं के साथ बच्चों के द्वारा भी मैला उठाए जाने पर चिंता जताई गई.

हालांकि राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की इस सलाह पर केंद्र सरकार का कोई बयान नहीं आया है पर मुझे लगता है कि मेरे उन लाखों भाई-बहनों के लिए राहत के द्वारा खुल सकते है. या हो सकता है कि यह एक छलावा भी हो, क्योंकि पहले भी इन निचले तबकों वालों के साथ धोखा हो चुका है.
अब देखिये न समाज कल्याण विभाग के पास सफाई कर्मचारी आयोग के साथ ही तीन अन्य आयोग भी है लेकिन इस आयोग की ही अनदेखी की जा रही है. शुरू में आयोग के गठन के समय 11 करोड़ की योजना बनाई गई थी और 300 करोड़ पुर्नवास और 125 करोड़ कल्याण कार्यक्रमों पर खर्च करने की बात कही गई थी. पर भ्रष्टाचार की छाया यहां भला कैसे न पड़ती. उत्तरप्रदेश के कार्यालय में ही अकेले दो अरब की गड़बड़ी का खुलासा हुआ. चाहे वह उत्तरप्रदेश हो, बिहार हो, छत्तीसगढ़ हो या फिर देश के अन्य राज्य सभी जगह सफाई कर्मचारियों की हालत खराब है।

शुष्क शौचालय का निर्माण अपराध की श्रेणी में आता है लेकिन 42 साल बाद कानून बनाकर इस कृत्य को अपराध घोषित करने वाली सरकार ने एक भी मामले में किसी को दंडित नहीं किया. मलकानी समिति, बीएस बंटी समिति ने इनके विकास की दिशा में और इन्हें समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए कई सिफारिशे की लेकिन सब बेकार हुई.

उनका हक उन्हें आज तक नहीं मिला. समाज की गंदगी को साफ करने वाला यह तबका स्वयं ही सरकारी की दिमागी गंदगी का शिकार है. समाज तो आज भी इन्हें घृणा की दृष्टि से देखता है सरकार भी उन्हें विकास की मुख्यधारा में लाने की मंशा रखती है, ऐसा अब तक तो एक बार भी नहीं लगा.
आजादी के बाद भी सफाईकर्मियों को उनकी कुपरंपरा से मुक्ति दिलाने के लिए सरकारी नाटक जारी है।

देखना होगा कि सरकार राष्ट्रीय सलाहकार समिति की सलाह पर अमल करते हुए काम करती है या फिर आगे भी सरकारी स्वांग जारी रखती है.

गुरुवार, 21 अक्तूबर 2010

रिश्तों का स्क्वॉड


संजीत कुमार, रायपुर

एचएम स्क्वॉड में पदस्थ डीएसपी आरके राय गृहमंत्री ननकीराम कंवर के रिश्तेदार हैं। बताया गया है कि वे चुनाव के दौरान कंवर के लिए प्रचार भी करते रहे हैं। एचएम स्क्वॉड के तकरीबन सभी अधिकारी और कर्मचारी कंवर के करीबी हैं। इनमें अधिकतर की पदस्थापना नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में की जानी थी, पर कंवर ने पहले ही एचएम स्क्वॉड बनाकर इन अधिकारियों की पदस्थापना कर दी।

एचएम स्क्वॉड के डीएसपी राय की पदस्थापना भी नक्सल प्रभावित क्षेत्र में होनी थी। परिवहन से लौटे राय ने गृहमंत्री से अपनी रिश्तेदारी का हवाला देकर ऎसा नहीं होने दिया। परिवहन से लौटकर

राय कुछ महीने पुलिस मुख्यालय में रहे। इसके बाद उन्होंने अपनी पदस्थापना रायपुर में डीएसपी यातायात में करा ली।

एक और इंस्पेक्टर

धमतरी जिले के नगरी में पदस्थ इंस्पेक्टर राजेश खरे को एचएम स्क्वॉड में लिया गया है। राजधानी में पदस्थ रहे खरे का तबादला नक्सल प्रभावित क्षेत्र में हुआ था। इसे रूकवाने के लिए वे लंबे समय तक जोड़तोड़ में लगे रहे। पुलिस मुख्यालय की सख्ती की वजह से उन्हें नगरी जाना पड़ा।

मुंगेली भेजे गए तिर्की

एचएम स्क्वॉड में आबकारी और खनिज की जांच की कमान संभाल रहे डीएसपी मुक्ति तिर्की को एसडीओपी मुंगेली बनाया गया है। स्वर्णाभूषणों के शौकीन तिर्की पदोन्नति से पहले राजधानी के खमतराई, टिकरापारा और उरला आदि में थानेदारी कर चुके हैं। डीएसपी पदोन्नत होने के बाद वे लंबे समय तक कोरबा में रहे।

यह था मामला

उल्लेखनीय है कि धमतरी के एक ढाबा संचालक को शराब की अवैध बिक्री करने के आरोप में फंसाने की धमकी देकर एचएम स्क्वॉड ने उससे डेढ़ लाख रूपए वसूले हैं। इनमें एक लाख रूपए की राशि सीधे बैंक में जमा कराई गई है। इसके लिए अधिकारियों ने ढाबा संचालक को भारतीय स्टेट बैंक और पंजाब नेशनल बैंक के खाता नंबर दिए थे। पहला खातेदार कंवर का विधायक प्रतिनिधि जोगेंद्र कौशिक निकला, जिसके बेटे अमित के खाते में 49 हजार रूपए जमा किए गए थे। दूसरा खातेदार रूपसाय देवांगन है, जिसके खाते में भी ढाबा संचालक ने 49 हजार रूपए जमा किए। इस खाते के उपयोग रूपसाय देवांगन का बेटा करता है, जिसने यह राशि निकाल ली है।

दूसरा खातेदार चुप

कोरबा. एचएम स्क्वॉड ने धमतरी के ढाबा संचालक को पंजाब नेशनल बैंक का जो खाता नंबर (3011000100020259) दिया था, वह रूपसाय देवांगन का है। उसका खाता बैंक के रजगामार शाखा में है। रिश्वत की पूरी रकम उसने दूसरे दिन ही खाते से निकाल ली थी। देवांगन का कहना है कि खाते का उपयोग उनका बेटा परदेशी देवांगन करता है, जो चांपा में रहता है। गृहमंत्री कंवर और भाजपा से रिश्तों के सम्बन्ध में देवांगन ने कुछ भी नहीं कहा।

*साभार- पत्रिका.काम

दो लाख लोगों की मौत मलेरिया से

सुनील शर्मा

मैं इस बात को मानू न तो और क्या करूं, आखिर मैं पढऩे-लिखने वाला आदमी हूं. मेरे पास इसके अलावा और कोई चारा भी नहीं है क्योंकि मैं जिस तरह से स्वास्थ्य सेवाओं में आ रही गिरावट को देखता हूं तो मुझे लगता है कि चिकित्सा पत्रिका लांसेट का यह दावा गलत नहीं है कि हर साल भारत में दो लाख लोगों की मौत केवल मलेरिया से हो जाती है.

बीबीसी हिंदी सेवा में छपी एक खबर के मुताबिक बहुचर्चित चिकित्सा पत्रिका लांसेट ने अपने एक लेख में दावा किया है कि भारत में दो लाख मलेरिया से दो लाख लोगों की मौत हो जाती है।

पूरी खबर इस तरह है.......

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार भारत में 15 हज़ार लोगों की मौत मलेरिया के कारण होती है चिकित्सा पत्रिका लांसेट में छपे लेख में दावा किया गया है कि हर साल भारत में दो लाख से अधिक लोगों की मौत मलेरिया से होती है.

ये संख्या विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुमान से 13 गुना ज्यादा है. स्वास्थ्य संगठन के अनुसार भारत में हर साल 15 हज़ार लोगों की मौत मलेरिया के कारण होती है.

लांसेट का कहना है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के पास क्लीनिक और अस्पतालों में होने वाली मौतों की संख्या के आंकड़े उपलब्ध हैं जबकि बड़ी संख्या में मलेरिया से लोगों की मौतें घरों पर होती हैं.

हालांकि मलेरिया से होने वाली मौतों के आंकड़े जुटाना बहुत मुश्किल है.

लांसेट से अपने अध्ययन में आंकड़े जुटाने में प्रशिक्षित कार्यकर्ताओं की मदद ली.वे मृतकों के संबंधियों से मिले और उनसे पूछा कि उनके संबंधियों की मौत कैसे हुई. इसके बाद डॉक्टरों ने इन आंकड़ों की समीक्षा की.

कार्रवाई की ज़रूरत

लांसेट का कहना है कि ज़रूरत इस बात की है कि मलेरिया से होने वाली मौतों के आंकड़ों में तत्काल सुधार किया जाए ताकि इससे बचाव और इलाज के ज़रूरी धनराशि उपलब्ध कराई जा सके.

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने ये स्वीकार किया है कि आंकड़े जुटाने को लेकर उनकी सीमाएँ हैं लेकिन उसका कहना है कि लांसेट के अनुमान कुछ ज्यादा ही हैं.

स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि जो जानकारी जुटाई गई है, वो प्रामाणिक नहीं है क्योंकि मलेरिया में आने वाला तेज़ बुखार का लक्षण कई अन्य बीमारियों की वजह से भी आता है.

उल्लेखनीय है कि मच्छरों से पैदा होने वाली इस बीमारी से हर साल दुनियाभर में क़रीब 10 लाख लोगों की मौत हो जाती है.

अफ़्रीका इससे सबसे ज़्यादा प्रभावित है और यहीं इस बीमारी से सबसे अधिक मौतें भी होती हैं.


सोमवार, 18 अक्तूबर 2010

शराब पवित्र पानी है !



कमल दुबे, बिलासपुर

लाहौर में स्कूली पढ़ाई के बाद इंडिया की पंजाब यूनिवर्सिटी से समाज शास्त्र में पोस्ट ग्रेजूएट पी एच डी के बाद दिल्ली के हिन्दू राव कालेज में प्रोफ़ेसर रहे डाक्टर प्रभुदत्त खैरा रिटायरमेंट के बाद विगत 15 बरसों से छतीसगढ़ के बिलासपुर ज़िले के अचानकमार अभ्यारण्य के वनग्राम लमनी में बैगा आदिवासियों के बीच रह कर अपना वानप्रस्थ व्यतीत कर रहें हैं। इस क्षेत्र का बच्चा - बच्चा उन्हे '' दिल्लिवाले साब '' के नाम से जानता है।

पिछले चुनाव में मतदान के दिन उस क्षेत्र गुजरा तो देखा कि ट्रक ट्रेक्टर से वोटरों कि ढुलाई चल रही है। लमनी में डाक्टर खैरा दिख गये, उनसे पूछा कि इन आदिवासियों के लिये चुनाव क्या मायने रखता है?

उनके जवाब का संक्षेप- बैगा आदिवासी का राजनीति से कोई लेना-देना नही है, अगर इनको
ढॉ कर ना लाया जा
तो ये वोट डालने कभी आयें। जिन गावों में ये बहुसंख्य हैं वहाँ भी रपंच किसी अन्य जाति का है! इनको तो बस जंगल में रहने कि आज़ादी चाहिये, ये तो खेती भी नही करना चाहते, राज्य तो इनके रहन सहन में बाधा डालता है, इनकी संसकृति को सहेजने के बजाय बदलने में लगा है।

आफ़्रिका कि तर्ज़ पर कहा जा सकता है कि ये स्टेटलेस
सोसायटी है। कठिन से कठिन स्थिति में भी ये किसी से कुछ माँगे बिना अपना गुजारा कर लेते हैं। शराब इनके लिये पवित्र पानी है, हाँ कुछ लोग कभी कभी ज्यादा पी लेते हैं लेकिन पीने के बाद भी मेहनत में कमी नही करते हमें इनसे बहुत कुछ सीखना है, इनका जंगल का ज्ञान गजब का है, इनके घर आप में कभी जुड़े नही रहते, समाज में रहते हुए भी अलग रहना अलग रहते हुए भी समूह में रहना, क्या जीवन शैली है


शनिवार, 16 अक्तूबर 2010

रावण पर इमोशनल अत्याचार

सुनील शर्मा

मैं नहीं जानता कि आज माननीय, पूजनीय, परमश्रद्धेय रावण जी महाराज की कौन सी पुण्यतिथि है लेकिन इतना जरूर पता है कि आज ही के दिन ओरिजनल रावण की मौत हुई थी. खैर छोडि़ए.

इस मौके पर एक बात कहना चाहता हूं जिसका इंतजार पिछले एक साल से कर रहा हूं, पिछले साल भूल गया था. पता है मैं शुरू से ही बहुत परेशान हूं. किससे और किससे उसी से जिससे आप सभी परेशान है. अरे वहीं रावण. ये रावण नहीं जिसे आप आज मारने वाले है मैं तो दूसरे रावण की बात कर रहा हूं जिसके न जाने कितने रूप, रंग, आकार और छवियां है. आज फिर वहीं नाटक, फिर वहीं ड्रामा.

हमारे शहर में तो भाई भाभी ने भैया के लिए सीट खाली कर दी अरे सीट मतलब राम की सीट आज वे राम बनकर रावण को मारने वाले हैं, वाह भैया, धन्य है भाभी पर. एक बात और अपने पर होती राजनीति और अत्याचार को दशहरा के पहले ही रावण गुस्से से जल गया.

पिछले पंद्रह दिनों से शहर में 2 फीट से लेकर 70-80 फीट तक रावण के पुतले बनाने का काम ऐसे चल रहा था जैसे कि घर में शादी होने वाली है। पुलिस ग्राउंड में भैया और भाभी के झगड़े में फंसा सरकारी रावण, रेलवे क्षेत्र में बिना पहियों वाला रेल रावण, सरकंडा में ब्राह्मणों का रावण और न जाने कहां-कहां कितने-कितने रावण.

मुझे एक घटना याद आ रही है. मैं काफी छोटा था. उस समय हमारे गांव में दशहरा के मौके पर खूब धमा-चौकड़ी होती थी. एक बार दशहरा में रावण का पुतला दस दिनों से बनाया जा रहा था. काफी बड़ा पुतला 50 फीट का. लेकिन दशहरा की सुबह ही एक पागल ने उसे जला दिया. तब मुझे बहुत बुरा लगा. आज जब मैं इस बात को सोचता हूं तो उस पागल की हरकत सही लगती है मुझे तो ये भी लगता है कि वह पागल नहीं था. बल्कि पागल तो वो है जो राम का चोला पहनकर न जाने कितने रावण राम बनकर रावण के पुतले को जलाते हैं. रावण पूजनीय है, इसलिए नहीं कि वह ब्राहमण है बल्कि इसलिए कि जिससे काफी सारी चीजे सीखी जा सकती हैउसे जलाना ठीक नहीं. रावण सिखाता है कि दुनिया में हर बुराई के पीछे अगर अच्छाई की मंशा हो तो हर बुराईअंतत: अच्छाई का रूप ले लेती है.

रावण यह भी सिखाता है कि चाहे इंसान कितना भी बड़ा बन जाए लेकिन वह भगवान अर्थात विज्ञान की भाषा में सुप्रीम पावर से कभी उपर नहीं उठ सकता. अब अंत में एक बात जैसा कि मैंने आपको पहले ही बताया कि मैं बहुत परेशान हूं, अपने रावण से. पिछले साल उसने वादा किया था कि वह मुझे छोड़ देगा लेकिन इस साल तक वह मेरे साथ है और न जाने कितने समय तक रहेगा? उसकी नीयत कुछ ठीक नहीं है.

आज सुबह मैंने गुस्से में आकर उससे पूछा कि आज तो मेरा साथ छोड़ दो, मुस्कुराकर उसने कहा कि क्या तुमने मुझे मूर्ख समझ रखा है, शाम को तुम मुझे जलाओगे और सुबह मैं तुम्हें छोड़ दूं. मैंने कहा पिछले साल एक अखबार के लिए तुम्हारे पक्ष में आर्टिकल लिखा था तब तो तुमने कहा था कि छोड़ दोगे. इस पर उसने कहा कि इस जनम में तो मुश्किल है, कोशिश करके देख लो. मैं तो अपने रावण से बहुत परेशान हूं उम्मीद है कि आप लोग भी अपने-अपने रावण से परेशान होंगे. फिर भी इस परेशानी के बाद-------
विजयादशमी की शुभकामनाएं, रावण के पुतले को जलाने के लिए नहीं बल्कि इस उम्मीद के साथ की एक बुराई आप छोड़ देंगे.

शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2010

भूख से हर दिन 14,600 मौत


देविंदर
शर्मा



कुछ चौंकाने वाली छवियां मेरे मन में अब भी अंकित हैं. कोई 25 साल पहले मैं एक प्रमुख दैनिक में छपी खबर पढ़ रहा था, जिसमें लिखा था कि भारत में हर दिन करीब पांच हजार बच्चे मर जाते हैं. पिछले सप्ताह एक अखबार में छपी खबर ने फिर मेरा ध्यान खींचा. इसमें लिखा था कि भारत में 18.3 लाख बच्चे अपना पांचवां जन्मदिवस मनाने से पहले ही मर जाते हैं.



मैंने तत्काल कागज और कलम उठाया और बच्चों की मृत्यु दर निकालने में जुट गया. मैं यह जानना चाहता था कि पिछले 25 सालों में बाल मृत्यु दर में कमी आई है या नहीं. मेरी हताशा बढ़ गई. गणना से पता चलता है कि रोजाना 5013 बच्चे कुपोषण और भुखमरी का शिकार हो जाते हैं.

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-3 के अनुसार भारत में पचास फीसदी बच्चे कुपोषित हैं, जिनमें से रोजाना 5 हजार बच्चे मौत के मुंह में समा जाते हैं. मेरी समझ से इस खबर पर हर भारतीय की सिर शर्म से झुक जाना चाहिए. दुनिया भर में 14,600 बच्चे हर रोज मर जाते हैं. इसका मतलब यह हुआ कि विश्व में कुल मरने वाले बच्चों के एक-तिहाई भारत में हैं. यह विडंबना तब है, जब अनाज गोदामों में सड़ रहा है.

हां, भारत निश्चित तौर पर एक उभरती हुई अर्थव्यवस्था है, किंतु इस साम्राज्य का निर्माण भूखे पेट के ऊपर हुआ है. मेरा भारत महान! पिछले पखवाड़े न्यूयॉर्क में गरीबी सम्मेलन में अंतरराष्ट्रीय नेतृत्व एकत्र हुआ था. एक बार फिर भारत ने विश्व के करीब 50 प्रतिशत भूखों के साथ चार्ट में बाजी मार ली.

विश्व के कुल 92.5 करोड़ भूखों में से 45.6 करोड़ भारत में रह रहे हैं. इससे हर भारतीय को शर्मसार होना चाहिए और खासतौर पर लोकतंत्र के नाम पर शपथ लेने वालों को. जनता के प्रतिनिधि भूख के बढ़ते प्रकोप से बेपरवाह कैसे हो सकते हैं? क्या यह सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए कि लोकतंत्र में भूख विद्यमान क्यों रहती है?

संयुक्त राष्ट्र सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य के 20-22 सितंबर को हुए सम्मेलन में जारी आंकड़ों से साफ हो जाता है कि लोकतंत्र की सबसे बड़ी त्रासदी को दूर करने में वैश्विक नेतृत्व बुरी तरह विफल रहा है. अम‌र्त्य सेन ने एक बार कहा था कि लोकतंत्र में अकाल नहीं पड़ता, किंतु मुझे इसमें बढ़ाना चाहिए कि भुखमरी लोकतंत्र में हमेशा मौजूद रहती है.

बढ़ती भुखमरी और कुपोषण इस बात के भी द्योतक हैं कि अंतरराष्ट्रीय नेतृत्व भुखमरी के खिलाफ संघर्ष में ईमानदार नहीं है. भुखमरी सबसे बड़ा घोटाला है. यह मानवता के खिलाफ अपराध है, जिसमें अपराधी को सजा नहीं मिलती. 1996 में विश्व खाद्यान्न सम्मेलन में राजनीतिक नेतृत्व ने संकल्प लिया था कि 2015 तक भूखों की संख्या आधी से कम हो जाएगी. तब भूखों की संख्या करीब 84 करोड़ थी. मात्र यह संकल्प ही प्रदर्शित करता है कि मानवता के खिलाफ सबसे जघन्य अपराध को लेकर राजनेता कितने बेपरवाह हैं. खाद्य एवं कृषि संगठन के आकलन के अनुसार रोजाना 24 हजार लोग भुखमरी और कुपोषण के दायरे में आ रहे हैं.

विश्व खाद्यान्न सम्मेलन में मैंने कहा था कि 2015 तक 17.2 करोड़ लोग भूख से मर चुके होंगे. जब पिछले दिनों विश्व के नेता एमडीजी सम्मेलन में शामिल हुए तब तक करीब 12.8 करोड़ लोग भूख से मर चुके थे. 1996 से भूखों की संख्या घटने के बजाय लगातार बढ़ रही है.

2010 तक विश्व को कम से कम 30 करोड़ लोगों को भूखों की सूची से हटा देना चाहिए था. हालांकि 92.5 करोड़ भूखे लोगों की संख्या में अब तक 8.5 करोड़ की वृद्धि हो चुकी है. लेकिन भूखों की संख्या कम दिखाकर भूख का विकराल रूप छुपाया जा रहा है. उदाहरण के लिए बताया जाता है कि भारत में 23.8 करोड़ लोग भुखमरी के शिकार हैं. यह संख्या निश्चित तौर पर गलत है.

नए सरकारी आकलनों के अनुसार 37.2 फीसदी जनता गरीबी में रह रही है, जिसका मतलब है कि भारत में भुखमरी के शिकार लोगों की अधिकारिक संख्या 45.6 करोड़ है. यह आकलन भी कम है. भारत में शहरी क्षेत्र में मात्र 17 रुपये प्रति व्यक्ति प्रति दिन गरीबी रेखा निर्धारित की गई है. यह समझ से परे है कि इस वर्गीकरण के तहत एक व्यक्ति दो जून की रोटी कैसे खा सकता है.



तमाम प्रमुख लोकतंत्रों में भुखमरी बढ़ रही है. अमेरीका में इसने 14 साल का रेकॉर्ड तोड़ दिया है. दस प्रतिशत अमरीकी भुखमरी के शिकार हैं. यूरोप में चार करोड़ लोग भूखे हैं. दिलचस्प यह है कि भूख सूची में शामिल अधिकांश देशों में लोकतंत्र कायम है.

क्या भूख मिटाना सचमुच इतना कठिन है? इसका जवाब है नहीं. चूंकि भूख से लड़ने की कोई इच्छाशक्ति नहीं है, इसलिए भूख का व्यापार तेज रफ्तार से फल-फूल रहा है. विश्व आर्थिक वृद्धि के प्रतिमान के मूल सिद्धांत के लक्ष्यों को गरीबी, भुखमरी और असमानता उन्मूलन के रूप में स्वीकार कर रहा है, किंतु वास्तव में यह भुखमरी और असमानता को बढ़ावा दे रहा है.

अर्थशास्त्रियों ने पीढि़यों के दिमाग में इस तरह की बातें भर दी हैं कि हर कोई विश्वास करने लगा है कि गरीबी और भुखमरी मिटाने का रास्ता जीडीपी से होकर गुजरता है. जितनी अधिक जीडीपी होगी, गरीब को गरीबी के दायरे से बाहर निकलने के अवसर भी उतने ही अधिक होंगे. इस आर्थिक सोच से अधिक गलत धारणा कुछ हो ही नहीं सकती.

2008 के आर्थिक संकट के बाद अंतराष्ट्रीय नेतृत्व ने अमीरों और उद्योगपतियों को संकट से निकालने के लिए 10 खरब डॉलर से अधिक झोंक दिए हैं. दूसरी तरफ, दुनिया के चेहरे से गरीबी और भुखमरी का नामोंनिशान मिटाने के लिए महज एक खरब रुपये की ही आवश्यकता पड़ेगी. किंतु इस काम के लिए संसाधनों का टोटा पड़ जाता है.

अमीरों की जेब भरने के लिए तो विश्व में पैसे की कमी नहीं है. लाभ का निजीकरण और लागत का सामाजिकरण का सिद्धांत गढ़ लिया गया है. क्या यह राजनीतिक और आर्थिक बेईमानी की श्रेणी में नहीं आता? भूखे पेट जबरदस्त व्यावसायिक अवसर पैदा करते हैं. धनी अर्थव्यवस्थाएं खाद्य और कृषि के क्षेत्र में मुक्त व्यापार के जरिये मोटा मुनाफा कमाती हैं. विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के खुलेपन से धनी अर्थव्यवस्थाओं को अवांछित प्रौद्योगिकी और सामान खपाने का मौका मिल जाता है. गरीबों की जेब से आखिरी पैसा तक निकालने के लिए माइक्रो फाइनेंस जैसी व्यवस्थाएं विकसित हो रही हैं.

भारत में गरीब और भुखमरी के शिकार लोग नए बाजार का निर्माण कर रहे हैं. निजी कंपनियां ग्रामीण क्षेत्रों में तेजी से दौड़ रही हैं. बहुत से गांवों में पीने के पानी की व्यवस्था नहीं हो पाई है लेकिन कोल्ड डि्रंक्स वहां भी बिकते नजर आ जाएंगे. इसमें भी हैरत की बात नहीं है कि आज देश में शौचालयों से अधिक संख्या मोबाइल फोन की हो गई है. भूख का व्यापार दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की कर रहा है.

साभार - रविवार डाट काम (www.raviwar.com)