सुनील शर्मा
कहते है कि चीजे बहुत तेजी से बदल रही है. इंसान की रफ्तार भी तेज हो चुकी है और वह अपने ही आसपास की चीजों को नहीं समझ पा रहा हैं. ढेर सारे बदलावों में एक बदलाव है, पर्यावरण का बदलाव. इस बदलाव को समझने की ही नहीं बल्कि तेजी से बढ़ते खतरे को भी महसूस करने और समय रहते इसके बचाव के उपाय करने आवश्यक है,
नहीं तो यह हमें ही नहीं बल्कि संपूर्ण मानवजाति को निगल लेगा. हालांकि मैं ऐसा नहीं कह रहा हूं कि पर्यावरण संरक्षण को लेकर जरा भी जागरूकता नहीं है लेकिन यदि कुछ लोग जागे भी है तो अपने स्वार्थ के कारण.
हाल ही में तोते के चरित्रहनन विषय पर आयोजित परिचर्चा के दौरान पर्यावरणप्रेमी और लेखिका डा. कविता दाभडक़र जो कि गल्र्स डिग्री कालेज में प्राध्यापिका ने एक बात कही थी कि यदि आज कुछ लोग, समाज और देश पर्यावरण संरक्षण की बात कह रहा है तो उसके पीछे भी उसका अपना ही स्वार्थ छिपा है. मेरा मानना है कि यदि निज-स्वार्थ के कारण भी कोई पर्यावरण संरक्षण के लिए आगे आता है तो मैं उसे बधाई देता हूं क्योंकि किसी बहाने ही सही उसने सही दिशा में कदम तो उठाया है.
सुधार की शुरुआत हमेशा खुद से करनी चाहिये फिर चाहे वह आचरण हो या फिर और कोई बुराई. पर्यावरण के संरक्षण के मामले में भी मेरा कुछ ऐसा ही मत है. मेरा मानना है कि तेजी से प्रदूषित होते पर्यावरण पर अब एकदम से रोक लगा पाना मुश्किल है. यह नामुमकिन है कि कुछ सेमिनार, कार्यशाला, मीटिंग, ट्रेनिंग या कुछ दिनों के फील्ड वर्क से इस समस्या से चंद दिनों में छुटकारा पा लेंगे.
विकास का जिस तरह का मॉडल अभी विश्व में अपनाया गया है, उससे पर्यावरण तेजी से प्रदूषित होता है जबकि प्रदूषण से छुटकारा पाने में सालों लग जाते हैं. औद्योगिकीकरण की भूख ने संपूर्ण मानवता को ही खतरे में डाल दिया है. माना कि यह युग औद्योगिक विकास का युग है, लेकिन आने वाली पीढिय़ा इसे पर्यावरण विनाश का युग भी मानेगी. शायद यह बात हम भूल जाते हैं.
फैक्ट्रियों, कारखानों से निकलने वाला धुआ हमें हजारों तरह की नई-नई बीमारिया दे रहा है और हम खुद का विकसित कहलाने में गौरान्वित महसूस कर रहे हैं. कार्बन मोनो आक्साइड, नाइट्रोजन-डाइ-आक्साइड और सल्फर-डाइ आक्साइड जैसी गैसें जो मोटरों के ईंधन के जलने से उत्पन्न होती है, मानव जीवन में जहर घोलने का कार्य कर रही है. पानी का प्रदूषण मुख्य रूप से फैक्ट्रियों से निकलने वाले केमिकलयुक्त पानी और अपशिष्ट पदार्थों से होता है. कीटनाशकों के बेतहाशा उपयोग ने जमीन को जहां बंजर बनाने का काम किया, वहीं खाद्यान्न की गुणवत्ता पर भी असर डाला. इससे कई तरह की बीमारियां होने लगी. सडक़ों के किनारे फेंके जाने वाले कुड़ा-कर्कट, नदियों में फेंके जाने वाले अपशिष्ट पदार्थों के साथ ही और भी अन्य तरह से पर्यावरण का नुकसान पहुंचाने का कार्य मनुष्य द्वारा किया जा रहा है.
हैरत की बात तो यह है कि यह जानते हुए कि इससे पर्यावरण प्रदूषित होता है, मनुष्य अपनी हरकत से बाज नहीं आता. जल, वायु, भूमि, के साथ ध्वनि प्रदूषण भी बहुत ही तेजी से बढ़ा है. तरह-तरह के विकिरण जो हमे दिखाई नहीं देते, परमाणु युग की देन है. ये रेडियो विकिरण स्वास्थ्य के लिये घातक है. परमाणु शस्त्रों के परीक्षण से इन विकिरणों की मात्रा दिनोंदिन बढ़ती जा रही है.
सभी देशों के वैज्ञानिक इस खोज में लगे हुए है कि किस तरह पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाया जा सके. रोज ही इसके लिए शोध किये जा रहे हैं. भारत में भी पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाने के लिये उपाय हो रहे हैं, लेकिन अभी-अभी लोगों में इसे लेकर जागरूकता नहीं है.
छह साल पहले 22 अपै्रल 2004 को भारत के पर्यावरणविदों की मांग पर सुप्रीम कोर्ट ने एनसीईआरटी से स्कूलों के लिए पर्यावरण पाठ्यक्रम तैयार कर अध्ययन कराने के निर्देश दिये थे. पर्यावरणविदों और पर्यावरणपे्रमियों को इस मामले में तर्क ये था कि मनुष्य हर पढ़ी हुई चीज पर विश्वास करता है जैसे कि वह अखबारों में छपी खबर को सच मानता है.
यदि बचपन से ही पर्यावरण संरक्षण की बात पाठ्यक्रम के रूप में बच्चों तक पहुंचाई जाये तो बच्चे बड़े होकर पर्यावरण की सुरक्षा में अपना योगदान देंगे. साथ ही खुद भी कभी ऐसे व्यवसाय को नहीं अपनाएंगे जिससे पर्यावरण प्रदूषित होता है.
एनसीईआरटी द्वारा तैयार किये गये आदर्श पाठ्यक्रम को सुप्रीम कोर्ट द्वारा मंजूरी मिलने के बाद से लेकर अब तक बच्चें स्कूलों में इसे विषय के रूप में अध्ययन कर रहे हैं. पर एक संकट यह है कि अन्य विषयों के बीच इनका अस्तित्व सुरक्षित नहीं है. दरअसल यह पाठ्यक्रम शिक्षकों की अनदेखी का शिकार हो रहा है. यह दुखद नहीं है तो और क्या है. सुप्रीम कोर्ट ने एनसीईआरटी को यह जिम्मा सौंपा था कि वह देखें कि देशभर में 12 वीं कक्षा तक पर्यावरण की शिक्षा दी जा रही है या नहीं. एनसीईआरटी ने राज्य सरकारोंं तथा 500 से अधिक पर्यावरण से जुड़े प्रतिष्ठानों, गैर-सरकारी संगठनों और पर्यावरण विशेषज्ञों से विचार-विमर्श करके यह पाठ्यक्रम तैयार किया था, लेकिन इससे भी पर्यावरण सुरक्षा की दिशा में फिलहाल कुछ खास फर्क पड़ता दिखाई नहीं दे रहा है. हालांकि यह बात भी सच है कि इतनी बड़ी समस्या का हल एक-दो दिनों में तो होगा नहीं, परिवर्तन शनै: शनै: ही संभव है. धैय रखना पड़ेगा तभी पर्यावरण का संरक्षण हो सकता है.
यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन से भी पूछा गया था कि बीए और एमए में पर्यावरण अध्ययन को विषय के रूप में शुरू किया जा सकता है या नहीं. फिलहाल तो पाठ्यक्रम शुरू नहीं हुआ है. पर्यावरण सुरक्षा को लेकर अब तक कई ऐसे अभियान जिनका संबंध खासतौर पर पर्यावरण शिक्षा से है, चलाने का श्रेय देश के प्रमुख वकीलों में से एक और प्रख्यात पर्यावरणवादी एमसी मेहता को जाता है. 1991 को उन्होंने पहली बार पर्यावरण की सुरक्षा को लेकर सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और आने वाले संकट को लेकर देश की जनता को आगाह किया. पर श्री मेहता के इस प्रयास की कद्र कितने लोगों ने की और उनकी बातों पर गौर करते हुए पर्यावरण संरक्षण की दिशा में कितने लोग आये. शायद उतने नहीं.
पिछले कुछ वर्षों में देखने को मिल रहा है कि पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाने के लिए देश और दुनिया में जगह-जगह सम्मेलन, संगोष्ठियां, कार्यशालाएं और इसी तरह के अन्य कई कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं. ऐसे कार्यक्रमों से लाभ तो मिलता है लेकिन बहुत कम या कई बार नहीं भी मिलते. अधिकांश कार्यक्रम के पीछे उद्देश्य शासकीय रुपये का हड़पना ही होता है.
अंत में छत्तीसगढ़ की बात. इस प्रदेश का 44 फीसदी क्षेत्र को वनाच्छादित माना जाता है. हालांकि यह केवल सरकारी आंकड़ा है, जो सच्चाई से कोसों दूर है. कभी यहां का पर्यावरण अच्छा हुआ करता था. लेकिन पिछले दस सालों में अर्थात राज्य बनने के बाद से लेकर अब तक प्रदेश के पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने के कई कारक और कारण यहां उत्पन्न हो गये हैं.
अकेले जांजगीर-चांपा जैसे छोटे जिले में 40 पावर प्लांट की स्थापना के लिए एमओयू करने वाली राज्य सरकार पर्यावरण संरक्षण का दम भरती है लेकिन बस्तर, दंतेवाड़ा, रायगढ़, कोरबा, रायपुर, बिलासपुर, सहित प्रदेश के अन्य जिलों में तेजी से प्रदूषित होते पर्यावरण से शायद ही जनता सरकार की ईमानदारी पर यकीन करें. पर्यावरण संरक्षण के लिए ईमानदार प्रयास के साथ ही ईमानदार हुकूमत का होना आवश्यक है, जो कि वर्तमान में नहीं है. चाहे कांग्रेस हो या राज्य की सत्ता में दूसरी बार काबिज हुई भाजपा, दोनों ने अपने-अपने ढंग से राज्य के विकास के नाम पर ऐसी योजनायें बनाई और संचालित की, जिसने पर्यावरण की सुरक्षा को खोखला कर दिया.
पर्यावरण की सुरक्षा के नाम पर केवल यहां दिखावा किया गया है और कुछ नहीं. पिछले साल सीएमडी कालेज के प्रोफेसरों ने अंतरराष्ट्रीय सेमिनार कर पर्यावरण संरक्षण की दिशा में प्रयास करने का आह्वान किया था लेकिन यदि उनसे पूछा जाये कि बीते एक वर्ष में प्रदेश या अकेले बिलासपुर शहर को इस सेमिनार से क्या लाभ मिला तो वे नहीं बता पाएंगे. सिवाय चंद लोगों को कुछ प्रमाणपत्र और अखबारों में तस्वीर छपने के.
मंगलवार, 28 सितंबर 2010
सोमवार, 27 सितंबर 2010
अंधेरी गलियों में बिलखता बचपन
सुनील शर्मा
छोटे-छोटे गंदे और मटमैले हाथों के सहारे पीठ पर बदबूदार पालीथिन के ढेर को एक बोरे में लटकाये सडक़ पर बिंदास अंदाज में चलते कई बच्चे अनायास ही दिखाई दे जाते हैं.
इनमें से कई भले ही नशा करते हो लेकिन इसके लिये वे कितने जिम्मेदार है, ये शोध का विषय है. इन बच्चों को देखकर यह भरोसा हो जाता है कि वास्तव में छत्तीसगढ़ के 50 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार है.
कहने को ये बच्चे है लेकिन इनमें से ज्यादातर हड्डियों के छोटे-छोटे ढांचे है जो मुंह-अंधेरे से देर शाम व रात तक गंदी गलियों, बजबजाती और सड़ांध मारती नालियों में मारे-मारे फिरते हैं. पालीथिन बिन उसे बेचने और उससे मिलने वाले चंद रुपयों से अपने घरवालों के लिये रोजी-रोटी का इंतजाम करने वाले इन मासूमों की चिंता किसे हैं? यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका जवाब आज किसी के पास नहीं. कुछ ज्यादा कमाई होने पर कभी-कभी आने वाले इनके चेहरों की फींकी मुस्कुराहट को छोडक़र ज्यादातर इन्हें उलझन और चिंतिंत ही देखा जा सकता है.
इन बच्चों के चेहरों की उदासी बयान करती है कि किस तरह इनका बचपन अंधेरे गलियों में बिलख-बिलख कर दम तोड़ रहा है और हमारा छत्तीसगढ़ दस सालों में विश्वसीनय होने के साथ ही जीडीपी ग्रोथ के मामले में गुजरात जैसे उन्नत राज्य को पछाड़ चुका है. जीडीपी ग्रोथ 11 प्रतिशत से भी अधिक हो गया और अभी भी प्रदेश के ढाई लाख बच्चे स्कूलों से केवल इसलिए दूर है, क्योंकि कभी उन्हें व उनके अभिभावकों को यह बताया ही नहीं गया कि स्कूल जाने से क्या होगा.
रोज सुबह होती है और रोज शाम, लेकिन समाज के हर व्यक्ति के लिए इस सुबह और शाम में फर्क है. छत्तीसगढ़ के 16 हजार वैध और तकरीबन 25 हजार अवैध शराब दुकानों से रोज लाखों लीटर शराब लोगों की पेट में पहुंचता है और नशे की सूरत में अनगिनत अपराध कराता है. कई ऐसे लोग है जिन्हें सोने के लिए शराब चाहिये. इन मासूमों को सोने के लिये न तो बिस्तर की जरूरत है और न ही किसी अन्य चीज की हां ये बात अलग है कि पेट खाली होने के कारण कभी-कभी इन्हें देर तक नींद नहीं आती. कई बच्चों को खुले में रेलवे स्टेशन और बस स्टैंड के प्लेटफार्म पर सोते हुए रोज रात में देखा जा सकता है. क्या इन बच्चों की तुलना अंग्रेजी स्कूलों में पढऩे वाले उन बच्चों से कभी हो सकती है, जिनके माता-पिता एक साल की पढ़ाई के लिए एक से डेढ़ लाख रुपये तक खर्च करते हैं.
जानकर आश्चर्य हो कि इनमें से ज्यादातर ने अपने वर्तमान से समझौता करने के साथ अपना भविष्य भी खुद ही तय कर लिया है. वे जानते हैं कि उनका भविष्य कुछ खास रहने वाला नहीं है. समाज का यह काला सच नंगी आंखों से रोज ही दिखाई देता है लेकिन लाखों में कोई एक ही होता है, जो बच्चों के दर्द को शिद्दत से महसूस करता है, शेष तो तेजी से अपने काम में आगे बढ़ जाते हैं.
मासूमों का बिलखता बचपन कभी अनवरत होने वाले रेलवे स्टेशन के एनाउंसमेंट तो कभी ट्रेन और बस से निकलने वाले भोपू के तेज स्वर में दबकर रह जाते हैं. अंधेरी गलियां तो जैसे इनका साथी है. वहां के किसी कोने में इनका बचपन दम तोड़ते हुये अक्सर देखा जा सकता है. इनका दर्द बांटने वाला, इनके खोते बचपन को संवारने वाला कौन है? फिर इस तेज रफ्तार दुनिया में किसे इतनी फुर्सत है.
गंभीर बात यह भी है कि इनके खोते बचपन के साथ ही ये बड़ी ही तेजी से अपराध की ओर अग्रसर हो रहे हैं. छोटे से छोटे शहर में भी रोज कोई न कोई बच्चा या तो अपराधी बन रहा है या फिर वह नशे में डूब रहा है. जानकर यह आश्चर्य हो कि पूरे प्रदेश में परिवार नियोजन में नंबर वन और राज्य की ऊर्जाधानी कहे जाने वाला कोरबा बाल अपराध की दृष्टि से भी नंबर वन है. कोरबा में ही सबसे ज्यादा बच्चे अपराध करते हैं. इस बात पर यकीन न आने पर प्रदेश के बाल संपे्रक्षण गृहों में जाकर पता लगाया जा सकता है.
समाचारों के संकलन के लिए कई बार बिलासपुर में स्थित बाल संप्रेक्षण गृह जाने का मौका मिला, जहां हर बार कोरबा के बच्चों की संख्या दो तिहाई से भी अधिक थी. ये बच्चे रेप, मर्डर, पाकिटमारी, चोरी, डकैती सहित कई संगीन जुर्म कर यहां आये थे. अभी भी कोरबा के अपराधी बच्चों की संख्या बाल संपे्रेक्षण गृह में सबसे अधिक है. ऐसा माना जाता है कि जब से कोरबा में औद्योगिक विकास हुआ है तब से ही बाल अपराध के मामले भी तेजी से बढ़े है.
यहां पर दो छोटी घटनाओं का जिक्र करने से मैं खुद को नहीं रोक पा रहा हूं. करीब छह महीने पहले की बात है. मैं और मेरे एक मित्र आफिस का काम खतम करके रेलवे स्टेशन में प्लेटफार्म नंबर एक में चाय पी रहे थे. रात के करीब 11.30 बजे थे. तभी अचानक नन्हें और मटमैले हाथों में पानी की बोतल थामे एक लडक़ा यात्रियों से पानी की बोतल खरीदने की गुहार लगा रहा था. गाड़ी खड़ी थी और कई यात्रियों से काफी देर तक मिन्नते करता रहा. पर किसी को उस पर दया नहीं आई. पर उसने हार नहीं मानी और वह गुहार लगाता रहा. हो सकता है कि उसके और बड़ी-बड़ी कंपनियों के बोतलबंद पानी में अंतर हो, लेकिन उसकी आंखों से निकलने वाले मोती के मानिंद पानी की कीमत उस पानी से कहीं अधिक थी.
जब मुझसे नहीं रहा गया तो मैंने दस रुपये देकर उससे एक बोतल खरीद लिया. रुपये मिलते ही वह झटपट दौड़ता हुआ कैंटीन की ओर भागा और जब लौटा तो उसके हाथ में दो समोसे थे. जिसे वह ऐसे खा रहा था जैसे वर्षों से भूखा हो. खाने के दौरान भी वह रो रहा था पर इस बार खुशी के आंसू थे.
दूसरी घटना कुछ ऐसी हुई कि एक बार एक रिपोर्टिंग के सिलसिले में मैं अपने एक मित्र के साथ जा रहा था. तभी एक गली में 14-15 साल की लडक़ी दिखी जिसके बाल उसके चेहरे पर लटक रहे थे. वह खामोशी से दीवार पर टिकी थी. मैंने उससे एक व्यक्ति के घर का पता पूछा तो वह तो उसने जवाब नहीं दिया. मैंने पुन: उससे जब पूछा तो वह लगभग चीखते हुये वहां से नहीं मालूम कहकर चली गई. करीब एक महीने बाद मैं रिपोर्टिंग के सिलसिले में ही अस्पताल गया था. वहां एक बिस्तर पर वहीं लडक़ी मुझे लेटी हुई दिखाई दी. मैं ठिठक गया. डाक्टर से जब मैंने उस लडक़ी के बारे में पूछा तो उसने बताया कि लगातार नशा करने के कारण वह गंभीर बीमारी की शिकार हो गई है और वह पूरी तरह शायद ही ठीक हो पाये. हो सकता है कि उसकी मौत भी हो जाये.
मैं सोचने लगा कि आसमान पर कितने तारे है. रोज उन्हें कोई न कोई देखता है. कई लोग तो तारों की पूजा भी करते हैं. ध्रुव तारा तो हिंदूओं के विवाह के समय इतना महत्वपूर्ण हो जाता है कि दुल्हा-दुल्हन को उसके दर्शन करवाये जाते हैं. परिजन भगवान से प्रार्थना करते हैं कि जिस तरह ध्रुव तारा अटल है उसी तरह नवदंपति का संबंध भी अटल रहें.
पर क्या हम और आप और क्या स्वयं तारे जमीन पर फिल्म बनाने वाले आमिर खान सडक़ पर जीने व मरने वाले लाखों तारों की परवाह कर पाते हैं. विदेशी रुपये से देश में सर्वशिक्षा अभियान चलाने वाली सरकार ने प्रयास किया है कि वह इन बच्चों को स्कूलों तक ले जाये लेकिन क्या इसमें उसे सफलता मिली है. अरबों रुपये के भ्रष्टाचार का खुलासा होने के बाद सर्वशिक्षा अभियान का स्कूल चले हम का नारा फींका तो पड़ा ही अन्य बाल विकास योजनाओं का भी बुरा हाल है. आंगनबाडिय़ों में बच्चों के लिये दिये जाना वाला दलियां पशु खा रहे हैं, बच्चों को मुफ्त बांटने के लिये दी जाने वाली किताबों को शिक्षक कबाडिय़ों को बेच रहे हैं. कुल मिलाकर बुरा हाल है.
खोते बचपन की चिंता करनी होगी. आखिर कब तक देश का भविष्य समझे जाने वाले बच्चे सडक़ पर ठोकर खाते, नालियों में पालीथिन बिनते हुए और अंधेरी गलियों में नशा करते रहेंगे. इनके बचपन की रक्षा करने की जवाबदारी सरकार के साथ ही हम लोगों की भी है. मैं इस कविता के साथ अपनी बात खतम करता हूं.
मैंने भी देखा है बचपन कचरे के डिब्बों में
पॉलीथीन की थैलियाँ ढूंढते हुए
तो कभी कबाड़ के ढेर में
अपनी पहचान खोते हुए
कभी रेहड़ियों पर तो
कभी ढाबे, पानठेलों पर
पेट के इस दर्द को मिटाने
अपने भाग्य को मिटाते हुए
स्कूल, खेल, खिलौने, साथी
इनकी किस्मत में ये सब कहाँ
इनके लिए तो बस है यहाँ
हर दम काम और उस पर
ढेरों गालियों का इनाम
दो वक्त की रोटी की भूख
छीन लेती है इनसे इनका आज
और इन्हें खुद भी नहीं पता चलता
दारु, गुटका और बीड़ी में
अपना दर्द छुपाते- छुपाते
कब रूठ जाता है इनसे
इनका बचपन सदा के लिए I
और समय से पहले ही
बना देता हैं इन्हें बड़ा
और गरीब भी...!
छोटे-छोटे गंदे और मटमैले हाथों के सहारे पीठ पर बदबूदार पालीथिन के ढेर को एक बोरे में लटकाये सडक़ पर बिंदास अंदाज में चलते कई बच्चे अनायास ही दिखाई दे जाते हैं.
इनमें से कई भले ही नशा करते हो लेकिन इसके लिये वे कितने जिम्मेदार है, ये शोध का विषय है. इन बच्चों को देखकर यह भरोसा हो जाता है कि वास्तव में छत्तीसगढ़ के 50 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार है.
कहने को ये बच्चे है लेकिन इनमें से ज्यादातर हड्डियों के छोटे-छोटे ढांचे है जो मुंह-अंधेरे से देर शाम व रात तक गंदी गलियों, बजबजाती और सड़ांध मारती नालियों में मारे-मारे फिरते हैं. पालीथिन बिन उसे बेचने और उससे मिलने वाले चंद रुपयों से अपने घरवालों के लिये रोजी-रोटी का इंतजाम करने वाले इन मासूमों की चिंता किसे हैं? यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका जवाब आज किसी के पास नहीं. कुछ ज्यादा कमाई होने पर कभी-कभी आने वाले इनके चेहरों की फींकी मुस्कुराहट को छोडक़र ज्यादातर इन्हें उलझन और चिंतिंत ही देखा जा सकता है.
इन बच्चों के चेहरों की उदासी बयान करती है कि किस तरह इनका बचपन अंधेरे गलियों में बिलख-बिलख कर दम तोड़ रहा है और हमारा छत्तीसगढ़ दस सालों में विश्वसीनय होने के साथ ही जीडीपी ग्रोथ के मामले में गुजरात जैसे उन्नत राज्य को पछाड़ चुका है. जीडीपी ग्रोथ 11 प्रतिशत से भी अधिक हो गया और अभी भी प्रदेश के ढाई लाख बच्चे स्कूलों से केवल इसलिए दूर है, क्योंकि कभी उन्हें व उनके अभिभावकों को यह बताया ही नहीं गया कि स्कूल जाने से क्या होगा.
रोज सुबह होती है और रोज शाम, लेकिन समाज के हर व्यक्ति के लिए इस सुबह और शाम में फर्क है. छत्तीसगढ़ के 16 हजार वैध और तकरीबन 25 हजार अवैध शराब दुकानों से रोज लाखों लीटर शराब लोगों की पेट में पहुंचता है और नशे की सूरत में अनगिनत अपराध कराता है. कई ऐसे लोग है जिन्हें सोने के लिए शराब चाहिये. इन मासूमों को सोने के लिये न तो बिस्तर की जरूरत है और न ही किसी अन्य चीज की हां ये बात अलग है कि पेट खाली होने के कारण कभी-कभी इन्हें देर तक नींद नहीं आती. कई बच्चों को खुले में रेलवे स्टेशन और बस स्टैंड के प्लेटफार्म पर सोते हुए रोज रात में देखा जा सकता है. क्या इन बच्चों की तुलना अंग्रेजी स्कूलों में पढऩे वाले उन बच्चों से कभी हो सकती है, जिनके माता-पिता एक साल की पढ़ाई के लिए एक से डेढ़ लाख रुपये तक खर्च करते हैं.
जानकर आश्चर्य हो कि इनमें से ज्यादातर ने अपने वर्तमान से समझौता करने के साथ अपना भविष्य भी खुद ही तय कर लिया है. वे जानते हैं कि उनका भविष्य कुछ खास रहने वाला नहीं है. समाज का यह काला सच नंगी आंखों से रोज ही दिखाई देता है लेकिन लाखों में कोई एक ही होता है, जो बच्चों के दर्द को शिद्दत से महसूस करता है, शेष तो तेजी से अपने काम में आगे बढ़ जाते हैं.
मासूमों का बिलखता बचपन कभी अनवरत होने वाले रेलवे स्टेशन के एनाउंसमेंट तो कभी ट्रेन और बस से निकलने वाले भोपू के तेज स्वर में दबकर रह जाते हैं. अंधेरी गलियां तो जैसे इनका साथी है. वहां के किसी कोने में इनका बचपन दम तोड़ते हुये अक्सर देखा जा सकता है. इनका दर्द बांटने वाला, इनके खोते बचपन को संवारने वाला कौन है? फिर इस तेज रफ्तार दुनिया में किसे इतनी फुर्सत है.
गंभीर बात यह भी है कि इनके खोते बचपन के साथ ही ये बड़ी ही तेजी से अपराध की ओर अग्रसर हो रहे हैं. छोटे से छोटे शहर में भी रोज कोई न कोई बच्चा या तो अपराधी बन रहा है या फिर वह नशे में डूब रहा है. जानकर यह आश्चर्य हो कि पूरे प्रदेश में परिवार नियोजन में नंबर वन और राज्य की ऊर्जाधानी कहे जाने वाला कोरबा बाल अपराध की दृष्टि से भी नंबर वन है. कोरबा में ही सबसे ज्यादा बच्चे अपराध करते हैं. इस बात पर यकीन न आने पर प्रदेश के बाल संपे्रक्षण गृहों में जाकर पता लगाया जा सकता है.
समाचारों के संकलन के लिए कई बार बिलासपुर में स्थित बाल संप्रेक्षण गृह जाने का मौका मिला, जहां हर बार कोरबा के बच्चों की संख्या दो तिहाई से भी अधिक थी. ये बच्चे रेप, मर्डर, पाकिटमारी, चोरी, डकैती सहित कई संगीन जुर्म कर यहां आये थे. अभी भी कोरबा के अपराधी बच्चों की संख्या बाल संपे्रेक्षण गृह में सबसे अधिक है. ऐसा माना जाता है कि जब से कोरबा में औद्योगिक विकास हुआ है तब से ही बाल अपराध के मामले भी तेजी से बढ़े है.
यहां पर दो छोटी घटनाओं का जिक्र करने से मैं खुद को नहीं रोक पा रहा हूं. करीब छह महीने पहले की बात है. मैं और मेरे एक मित्र आफिस का काम खतम करके रेलवे स्टेशन में प्लेटफार्म नंबर एक में चाय पी रहे थे. रात के करीब 11.30 बजे थे. तभी अचानक नन्हें और मटमैले हाथों में पानी की बोतल थामे एक लडक़ा यात्रियों से पानी की बोतल खरीदने की गुहार लगा रहा था. गाड़ी खड़ी थी और कई यात्रियों से काफी देर तक मिन्नते करता रहा. पर किसी को उस पर दया नहीं आई. पर उसने हार नहीं मानी और वह गुहार लगाता रहा. हो सकता है कि उसके और बड़ी-बड़ी कंपनियों के बोतलबंद पानी में अंतर हो, लेकिन उसकी आंखों से निकलने वाले मोती के मानिंद पानी की कीमत उस पानी से कहीं अधिक थी.
जब मुझसे नहीं रहा गया तो मैंने दस रुपये देकर उससे एक बोतल खरीद लिया. रुपये मिलते ही वह झटपट दौड़ता हुआ कैंटीन की ओर भागा और जब लौटा तो उसके हाथ में दो समोसे थे. जिसे वह ऐसे खा रहा था जैसे वर्षों से भूखा हो. खाने के दौरान भी वह रो रहा था पर इस बार खुशी के आंसू थे.
दूसरी घटना कुछ ऐसी हुई कि एक बार एक रिपोर्टिंग के सिलसिले में मैं अपने एक मित्र के साथ जा रहा था. तभी एक गली में 14-15 साल की लडक़ी दिखी जिसके बाल उसके चेहरे पर लटक रहे थे. वह खामोशी से दीवार पर टिकी थी. मैंने उससे एक व्यक्ति के घर का पता पूछा तो वह तो उसने जवाब नहीं दिया. मैंने पुन: उससे जब पूछा तो वह लगभग चीखते हुये वहां से नहीं मालूम कहकर चली गई. करीब एक महीने बाद मैं रिपोर्टिंग के सिलसिले में ही अस्पताल गया था. वहां एक बिस्तर पर वहीं लडक़ी मुझे लेटी हुई दिखाई दी. मैं ठिठक गया. डाक्टर से जब मैंने उस लडक़ी के बारे में पूछा तो उसने बताया कि लगातार नशा करने के कारण वह गंभीर बीमारी की शिकार हो गई है और वह पूरी तरह शायद ही ठीक हो पाये. हो सकता है कि उसकी मौत भी हो जाये.
मैं सोचने लगा कि आसमान पर कितने तारे है. रोज उन्हें कोई न कोई देखता है. कई लोग तो तारों की पूजा भी करते हैं. ध्रुव तारा तो हिंदूओं के विवाह के समय इतना महत्वपूर्ण हो जाता है कि दुल्हा-दुल्हन को उसके दर्शन करवाये जाते हैं. परिजन भगवान से प्रार्थना करते हैं कि जिस तरह ध्रुव तारा अटल है उसी तरह नवदंपति का संबंध भी अटल रहें.
पर क्या हम और आप और क्या स्वयं तारे जमीन पर फिल्म बनाने वाले आमिर खान सडक़ पर जीने व मरने वाले लाखों तारों की परवाह कर पाते हैं. विदेशी रुपये से देश में सर्वशिक्षा अभियान चलाने वाली सरकार ने प्रयास किया है कि वह इन बच्चों को स्कूलों तक ले जाये लेकिन क्या इसमें उसे सफलता मिली है. अरबों रुपये के भ्रष्टाचार का खुलासा होने के बाद सर्वशिक्षा अभियान का स्कूल चले हम का नारा फींका तो पड़ा ही अन्य बाल विकास योजनाओं का भी बुरा हाल है. आंगनबाडिय़ों में बच्चों के लिये दिये जाना वाला दलियां पशु खा रहे हैं, बच्चों को मुफ्त बांटने के लिये दी जाने वाली किताबों को शिक्षक कबाडिय़ों को बेच रहे हैं. कुल मिलाकर बुरा हाल है.
खोते बचपन की चिंता करनी होगी. आखिर कब तक देश का भविष्य समझे जाने वाले बच्चे सडक़ पर ठोकर खाते, नालियों में पालीथिन बिनते हुए और अंधेरी गलियों में नशा करते रहेंगे. इनके बचपन की रक्षा करने की जवाबदारी सरकार के साथ ही हम लोगों की भी है. मैं इस कविता के साथ अपनी बात खतम करता हूं.
मैंने भी देखा है बचपन कचरे के डिब्बों में
पॉलीथीन की थैलियाँ ढूंढते हुए
तो कभी कबाड़ के ढेर में
अपनी पहचान खोते हुए
कभी रेहड़ियों पर तो
कभी ढाबे, पानठेलों पर
पेट के इस दर्द को मिटाने
अपने भाग्य को मिटाते हुए
स्कूल, खेल, खिलौने, साथी
इनकी किस्मत में ये सब कहाँ
इनके लिए तो बस है यहाँ
हर दम काम और उस पर
ढेरों गालियों का इनाम
दो वक्त की रोटी की भूख
छीन लेती है इनसे इनका आज
और इन्हें खुद भी नहीं पता चलता
दारु, गुटका और बीड़ी में
अपना दर्द छुपाते- छुपाते
कब रूठ जाता है इनसे
इनका बचपन सदा के लिए I
और समय से पहले ही
बना देता हैं इन्हें बड़ा
और गरीब भी...!
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