शनिवार, 29 जनवरी 2011

सुनील सहित आठ को एनएफआई मीडिया फेलोशीप



 
 रविवार डॉट कॉम के संपादकीय विभाग में कार्यरत सुनील शर्मा को नेशनल फाउंडेशन फॉर इंडिया ने 2011 की मीडिया फेलोशीप प्रदान की है. इस फेलोशीप के तहत सुनील शर्मा छत्तीसगढ़ में आदिवासियों की स्थिति पर शोधपरक रिपोर्ट तैयार करेंगे.

नेशनल फाउंडेशन फॉर इंडिया पिछले कई सालों से अलग-अलग भाषाओं में काम करने वाले पत्रकारों को यह फेलोशीप देती है. इस साल देश के आठ पत्रकारों और फोटोग्राफरों का चयन इस फेलोशीप के लिये किया गया है.

पिछले दिनों दिल्ली के इंडिया हैबीटेट सेंटर में संपन्न हुये एक कार्यक्रम में प्रख्यात इतिहासकार रामचंद्र गुहा के हाथों सुनील को यह फेलोशीप दी गई.

सुनील के अलावा जिन पत्रकारों को यह फेलोशीप मिली है, उनमें मुंबई की सौम्या राय, गुवाहाटी के अरुप शांडिल्य, बांदा की मीरा देवी, रांची की अलोका, चेन्नई की निधि अदलखा, दिल्ली की रावलीन कौर और बैंगालुरू के छायाकार सेल्वा प्रकाश शामिल हैं.


 * रविवार डॉट कॉम से साभार 
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मीडिया फेलोशिप पाने वाले मेरे सभी साथियों.. अरुप,सौम्या,सेल्वा,अलोका,मीरा,निधि और रावलीन को मेरी बधाई और अशेष शुभकामनाएं.....आप सभी खूब बढ़िया काम करें और शोहरत हासिल करें.

-सुनील शर्मा 

रविवार, 16 जनवरी 2011

बुजुर्ग की उंगली


मेरे पिताजी भतीजे अंकित  के साथ.
सुनील शर्मा

पुल खत्म होते ही
सडक़ किनारे मैंने
मोटरसाइकिल रोक दी.
उतरे एक बुजुर्ग और
एक आठ साल का बच्चा.


बुजुर्ग की उंगली थामे
बच्चा
निर्भय होकर चलने लगा
सडक़ के किनारे-किनारे.
बुजुर्ग काफी सावधानी से बच्चे को
अपने साथ लेकर जा रहे थे.


मैं कुछ देर तक खामोश खड़ा देखता रहा.
वैसे कोई खास बात 

नहीं थी उस दृश्य में
फिर क्यों मैं देर तक निहारते रहा
उनको जाते हुए?


पहली बार मेरे भीतर एक चाह जगी
और उसके साथ एक पीड़ा भी.
बचपन में काश मैंने भी थामी होती
किसी बुजुर्ग की उंगली.
और चल पाता निर्भय होकर.
तो मेरे भीतर का रोज बढऩे वाला
डर इतना बड़ा न होता.


मुझे तो दादा की वह तस्वीर भी
याद नहीं जो बरसो पहले
देखी थी बुआ के घर पर.

बुआ कहते नहीं थकती थी,
उस पुरानी श्याम- श्वेत तस्वीर में
कितने सुंदर लगते थे दादाजी.


एक बार बहुत पूछने पर
पिताजी ने बताया था
अमावस के मेले में खिंचवाई थी
उन्होंने वह तस्वीर,
और फोटोग्राफर ने पैसे लेने की बजाय
उनके पाँव छू लिए थे .

मंगलवार, 11 जनवरी 2011

नदिया बिक गई पानी के मोल


आलोक प्रकाश पुतुल


कहते हैं सूरज की रोशनी, नदियों का पानी और हवा पर सबका हक़ है। लेकिन छत्तीसगढ़ में ऐसा नहीं है. छत्तीसगढ़ की कई नदियों पर निजी कंपनियों का कब्जा है. दुनिया में सबसे पहले नदियों के निजीकरण का जो सिलसिला छत्तीसगढ़ में शुरु हुआ, वह थमने का नाम नहीं ले रहा. छत्तीसगढ़ की इन नदियों में आम जनता नहा नहीं सकती, पीने का पानी नहीं ले सकती, मछली नहीं मार सकती. सेंटर फॉर साइंस एंड इनवारनमेंट की मीडिया फेलोशीप के तहत पत्रकार आलोक प्रकाश पुतुल द्वारा किए गए अध्ययन का यह हिस्सा आंख खोल देने वाला है. आइये पढ़ते हैं,  रिपोर्ट  का पहला भाग.  


पानी का मोल कितना होता है ?

इस सवाल का जवाब शायद छत्तीसगढ़ में रायगढ़ के बोंदा टिकरा गांव में रहने वाले गोपीनाथ सौंरा और कृष्ण कुमार से बेहतर कोई नहीं समझ सकता.

26 जनवरी, 1998 से पहले गोपीनाथ सौंरा और कृष्ण कुमार को भी यह बात कहां मालूम थी.

तब छत्तीसगढ़ नहीं बना था और रायगढ़ मध्यप्रदेश का हिस्सा था. मध्यप्रदेश के इसी रायगढ़ में जब जिंदल स्टील्स ने अपनी फैक्टरी के पानी के लिए इस जिले में बहने वाली केलो नदी से पानी लेना शुरु किया तो गाँव के गाँव सूखने लगे. तालाबों का पानी कम होने लगा. जलस्तर तेजी से गिरने लगा. नदी का पानी जिंदल की फैक्ट्रीयों में जाकर खत्म होने लगा. लोगों के हलक सूखने लगे.

फिर शुरु हुई पानी को लेकर गाँव और फैक्ट्री की अंतहीन लड़ाई. गाँव के आदिवासी हवा, पानी के नैसर्गिक आपूर्ति को निजी मिल्कियत बनाने और उस पर कब्जा जमाने वाली जिंदल स्टील्स के खिलाफ उठ खड़े हुए. गाँववालों ने पानी पर गाँव का हक बताते हुए धरना शुरु किया. रायगढ़ से लेकर भोपाल तक सरकार से गुहार लगाई, चिठ्ठियाँ लिखीं, प्रर्दशन किए. लेकिन ये सब कुछ बेकार गया. अंततः आदिवासियों ने अपने पानी पर अपना हक के लिए आमरण अनशन शुरु किया.

बोंदा टिकरा के गोपीनाथ सौंरा कहते हैं - "मेरी पत्नी सत्यभामा ने जब भूख हड़ताल शुरु की तो मुझे उम्मीद थी कि शासन मामले की गंभीरता समझेगा और केलो नदी से जिंदल को पानी देने का निर्णय वापस लिया जाएगा. लेकिन ऐसा नहीं हुआ "

भूख हड़ताल पर बैठी सत्यभामा सौंरा की आवाज़ अनसुनी रह गई. लगातार सात दिनों से अन्न-जल त्याग देने के कारण सत्यभामा सौंरा की हालत बिगड़ती चली गई और 26 जनवरी 1998 को जब सारा देश लोकतांत्रिक भारत का 48वां गणतंत्र दिवस मना रहा था, पानी की इस लड़ाई में सत्यभामा की भूख से मौत हो गई.

सत्यभामा के बेटे कृष्ण कुमार बताते हैं- “इस मामले में मेरी मां की मौत के ज़िम्मेवार जिंदल और प्रशासन के लोगों पर मुकदमा चलना था लेकिन सरकार ने उलटे केलो नदी को निजी हाथ में सौंपने के खिलाफ मेरी मां के साथ आंदोलन कर रहे लोगों को ही जेल में डाल दिया. ”

इस बात को लगभग दस साल होने को आए.

इन दस सालों में सैकड़ों छोटी-बड़ी फैक्ट्रियाँ रायगढ़ की छाती पर उग आईं हैं. पूरा इलाका काले धुएं और धूल का पर्याय बन गया है. सितारा होटलें रायगढ़ में खिलखिला रही हैं. आदिवासियों के विकास के नाम पर अलग छत्तीसगढ़ राज्य भी बन गया है. कुल मिला कर ये कि आज रायगढ़ और उसका इलाका पूरी तरह बदल गया है.

नहीं बदली है तो बस नदी की कहानी.
क्रमश: