शनिवार, 21 जनवरी 2012

विस्थापन के नाम पर वन विभाग का जंगल राज


अचानकमार टाइगर रिजर्व में बाघों को बचाने के नाम पर वहां सैकड़ों सालों से रहने वाले बैगा आदिवासियों को हटाया जा रहा है. आदिवासियों को हटाने के नाम पर पिछले 2 सालों में तमाम नियम कायदे और कानून को ताक पर रख कर वन विभाग का जो जंगल राज चल रहा है, उसने इन बैगा आदिवासियों के सामने जीवन-मरन का प्रश्न पैदा कर दिया है. पुनर्वास के नाम पर वन विभाग ने बैगा आदिवासियों की जिंदगी जानवरों-सी कर दी है. नेशनल फाउंडेशन फार इंडिया के फेलोशिप के तहत सुनील शर्मा ने विस्तार से विस्थापन के इस मुद्दे पर लिखा है.पेश है दूसरी किस्त:—

सुनील शर्मा, बिलासपुर

विस्थापितों की रकम कहां गई?

सबसे बड़ा छल तो यह हुआ कि विस्थापित किये गये आदिवासियों को कभी भी पुर्नवास की नीतियों के बारे में नहीं बताया गया. सच तो यह है कि विस्थापन के लिये वन विभाग के अधिकारियों ने अपनी ही पुनर्वास नीति को ताक पर रख दिया.

टाईगर रिजर्व में विस्थापन को लेकर वन विभाग की नीति कहती है कि विस्थापित होने वाले आदिवासियों को दो में से किसी एक तरीके से पुनर्वास का लाभ दिया जाये. पहला तो यह कि प्रत्येक विस्थापित परिवार को बैंक खाता खुलवा कर 10-10 लाख रुपये दे दिये जायें और दूसरा ये कि इसी दस लाख रुपये से उनके लिये मकान-जमीन की व्यवस्था की जाये. पुनर्वास के इस दूसरे तरीके में प्रत्येक परिवार को पचास हजार रुपए नगद, पक्का मकान, पांच एकड़ कृषि भूमि, सड़क, बिजली, सिंचाई की सुविधा, तालाब, ट्यूबवेल, पेयजल, अस्पताल, सामुदायिक भवन, आंगनबाड़ी, पूजा स्थल, श्मशानघाट सहित अन्य जरूरी सुविधाओं का इंतजाम विस्थापितों के लिए करना था.
नियमानुसार 18 वर्ष से अधिक उम्र के सभी युवाओं को एक स्वतंत्र परिवार की मान्यता देते हुये उन्हें पुनर्वास का लाभ दिया जाना था. लेकिन वन विभाग ने ऐसा नहीं किया. सवाल यही उठता है कि ऐसे युवाओं के लिये आयी 10-10 लाख रुपये की रकम कहां गई ? यह सवाल पूछने पर वन विभाग के अफसर कागजों को देखने के बाद ही स्थिति बताने का रटा-रटाया जवाब देते हैं.

जाहिर है, सारे नियम-कायदों को दरकिनार करते हुए बगैर ग्रामीणों के पुर्नवास की व्यवस्था किये वन विभाग ने उन्हें रातोंरात गाड़ियों में भरकर उनके सामान के साथ लाकर नई जगह पर छोड़ दिया. अभी उनके लिए मकान बनने की शुरूआत भी नहीं हुई थी. न खेत बने थे और न सड़क, न बिजली का ही इंतजाम था.

पानी की उपलब्धता के कारण तालाब के किनारे आदिवासी छाला झोपड़ी बनाकर रहने लगे और  इस तरह अपनी जमीन से बेदखल हुए  आदिवासियों के नये और अनोखे त्रासदीपूर्ण जीवन का आगाज हुआ.

तालाब के किनारे मौसमी बीमारियों और मच्छर से तो वे किसी तरह अपनी जान बचाते रहे लेकिन अपनी मिट्टी से अलग होने का दर्द उनकी आंखों में रह-रहकर उभरने लगा. उनमें से कुछ तो पुर्नवास स्थल को छोड़कर अपने मूल गांव भी गये पर वहां पहरा होने के कारण उनका पहले की तरह निवास संभव नहीं था. जो गये उन्हें खदेड़ दिया गया और अपमानित आदिवासी एक बार फिर झोपड़ियों में दिन गुजारने लगे.
चूंकि उनके लिए बनाये जा रहे मकान ठेकेदार द्वारा बनाये जा रहे थे इसलिए उन्हें भवन निर्माण में काम नहीं मिल रहा था, क्योंकि ठेकेदार अपने लोगों को मजदूरी पर रख रहा था. वन विभाग ने इन आदिवासियों को पेड़ काटने, मार्ग बनाने, तालाब बनाने जैसे काम करवाये पर ऐसा रोजगार पाने वाले आदिवासियों की संख्या कम ही है.

वन विभाग का दावा है कि प्रत्येक परिवार को रोजगार गारंटी योजना के अंतर्गत एक लाख रुपए का भुगतान किया गया है. लेकिन वन विभाग का यह आंकड़ा अपनी कहानी खुद कह देता है. अगर इन आदिवासियों को एक लाख रुपये का भुगतान किया जाता है तो 249 परिवारों के हिसाब से यह रकम दो करोड़ 49 लाख रुपए हो जाती है. लेकिन आदिवासियों के जॉब कार्ड में इतनी रकम कहीं नजर नहीं आती.

इति विस्थापन कथा

अचानकमार टाईगर रिजर्व से विस्थापित 249 परिवार लगातार पांच महीने तक इसी तरह अपना जीवन झोपड़ियों में व्यतीत करते रहे और उधर वन विभाग के अफसर मनमानीपूर्ण रवैया अपनाते हुए अपने हिसाब से उनके मकान बनवाते रहे. मकानों में घटिया और गुणवत्ताहीन सामग्री का इस्तेमाल किया गया, जो कैमरे पर रिकार्ड है.
भ्रष्टाचार की सारी सीमायें लांघते हुए मकानसड़क, पहुंच मार्ग, खेती के जमीन का समतलीकरण, मेड़ निर्माण और तालाबों का निर्माण होता रहा. किसी तरह उक्त निर्माण कार्य पूर्ण हुआ और विस्थापितों को उनका घर और खेती के लिए जमीन सौंप दी गई.

यहां यह बताना लाजिमी है कि जिन छह गांवों का विस्थापन किया गया, उसमें जल्दा के ग्रामीणों को कोटा लोरमी मार्ग में जूनापारा, कठमुड़ा के पास, कूबा को मरवाही वनमंडल के आमाडोब के पास तो बांकल, बोकराकछार, सांभरधसान को लोरमी ब्लाक के अंतर्गत ग्राम दरवाजा के पास बसाया गया, जो कि खुड़िया यानी राजीव गांधी जलाशय जाने वाले मार्ग पर स्थित है. बहाउड़ के ग्रामीणों को ग्राम खुड़िया के अंतर्गत खुड़िया से जंगल के रास्ते छपरवा जाने वाले मार्ग पर बसाया गया.

मकान और खेती के लिए जमीन मिलने पर ग्रामीणों ने राहत ली और पांच महीने की दुख-तकलीफ को वे भूल गये पर यहां भी परेशानियों ने उनका पीछा नहीं छोड़ा. विस्थापित करने से पहले वन विभागों द्वारा उनको किया गया वादा सब्जबाग साबित होने लगा. खेती-किसानी के दिनों में जब ग्रामीणों ने अपनी जमीन देखी तो वहां न सिंचाई की सुविधा थी और न ही हल के लिए बैल मिले. खेती की जमीन का इतनी उबड़-खाबड़ थी कि उसमें चलना भी मुश्किल था, ऐसे में उसमें पानी रुकने और खेती होने की उम्मीद ही नहीं थी.

शिकायत करने पर कुछ ग्रामीणों की जमीन को ट्रेक्टर से जुतवाया गया जबकि बड़ी संख्या में ग्रामीणों ने खुद से ही पैसे देकर ट्रेक्टर जमीन जुतवाई. नि:शुल्क रासायनिक खाद का वितरण भी हुआ पर उसका लाभ भी कइयों को नहीं मिला. किसी तरह खेती शुरू हुई पर बारिश ने दगा दिया. खेती से उतना अनाज भी नहीं हुआ कि परिवार का एक आदमी उसे साल भर पकाकर खा सके. उन्हें पीडीएस का चावल नहीं मिलता तो उनके सामने भूखे मरने की नौबत आ जाती.
ग्रामीणों के यहां आने के  पहले दिन से ही शिक्षा और स्वास्थ्य का बुरा हाल रहा. आंगनबाड़ी,स्कूल,सामुदायिक भवन नहीं बने और न मंदिर न श्मशानघाट.

इन गांवों में आज भी उचित मूल्य की दुकान नहीं है और उन्हें बीपीएल का चावल लेने दूसरे गांव जाना पड़ता है. नये बने मकानों का हाल यह है कि पहली बरसात में ही छत के रास्ते से पानी कमरे के भीतर आने लगा.
वन विभाग के दावे के उलट इन 6 में से किसी भी गांव में अस्पताल नहीं है तो डाक्टर या नर्स के होने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता लिहाजा ये अपनी बीमारियों का झोला छाप डाक्टर से इलाज कराने मजबूर है.

इसी तरह बिजली के तार तो है पर उनमें करंट नहीं है. लिहाजा रात का अंधेरा अभी भी उनके पुराने गांव की तरह ही अभी उनका पुराना साथी है. हां यदि कोई मंत्री या बाहर का बड़ा अधिकारी गांव का निरीक्षण करने आता है तो जरूर इनमें करंट दौड़ने लगता है.
विस्थापित सभी गांव पानी की समस्या से भी जूझ रहे है. पेयजल की पर्याप्त व्यवस्था नहीं है. हैंडपंप तो खुदवाये गये हैं लेकिन अधिकतर हमेशा बिगड़ी हालत में ही रहते हैं. इनके बच्चों के बदन पर आज भी चिथड़े दिखते हैं और साफ-सफाई से कोसों दूर होने के कारण ये बीमारियों की चपेट में आ रहे हैं. विस्थापन के बाद इनके खातों में जमा कराया गया रुपया प्रति परिवार 50 हजार कब का खत्म हो गया है और अब इनके पास रोजगार का कोई इंतजाम नहीं है. 

नई जगह होने के कारण इन्हें कोई काम नहीं देना चाहता, वहीं महात्मा गांधी रोजगार गारंटी योजना में भी इन्हें काम नहीं मिल रहा है. शिक्षा का हाल यह है कि गांव के ही किसी के घर में स्कूल संचालित है, जिसमें गिनती के बच्चे क,,,घ रट रहे हैं और आने वाले संकट से बिल्कुल अनजान है.
यहां आकर कुछ बच्चों का जन्म जरूर हुआ है पर जो पुराने गांव में पैदा हुए है उनके लिए ये नया गांव ऐसा लग रहा है जैसे वे किसी और के घर में कुछ दिन रुकने के लिए आये हैं. नई जगह से न बड़े जुड़ाव महसूस कर पा रहे हैं और न बच्चे. ऐसे में विस्थापितों का जीवन अधर में दिखाई देता है.

जल्दा गांव के मरहूराम की उम्र करीबन 55 साल हैं. वे गांव के मुखिया हैं और वे अपने गांव वालों की दुर्दशा पर अफसोस जताते हुए कहते हैं -''दो डिस्मिल में पक्के का मकान, पांच डिस्मिल में बाड़ी, पांच एकड़ खेती की जमीन, सिंचाई की सुविधा, बिजली, पेयजल, स्कूल, टेलीफोन, धार्मिक पूजा स्थल, श्मशानघाट, तालाब, सड़क, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, उचित मूल्य की दुकान, आंगनबाड़ी केंद्र और कई अन्य सुविधाओं को देने की बात कहकर यहां लाया गया लेकिन दो साल बाद भी हमें ये सुविधाएं नहीं मिलीं. अगर कोई हमारे खेत और मकान ले लेगा तो हम उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते क्योंकि हमारे पास तो जमीन और मकान का पट्टा भी नहीं है.

उल्लेखनीय है कि मरहूराम के गांव में ही पिछले साल मंगलू बैगा की मौत भूख के कारण हुई थी, जो अखबार की सुर्खियां तो बनी लेकिन आदिवासियों की आवाज अनसूनी रह गई. गांव के सरहू और धान बाई ने तो ईलाज के अभाव में दम तोड़ दिया. मरहूराम को इनकी मृत्यु का गहरा अफसोस है. गांव का मुखिया होने के नाते ग्रामीण उनसे बड़ी उम्मीदें रखते हैं लेकिन वह उनकी उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पा रहें है. बकौल मरहूराम, अब उन्हें अपने मुखिया होने पर भी शर्म महसूस होने लगी है.
जल्दा गांव के विस्थापन के लिए सात करोड़ चालीस लाख रुपए मिले थे, जिसमें सभी 74 परिवारों को पचास-पचास हजार रुपए प्रोत्साहन राशि के रूप में मिले और शेष राशि सात करोड़ तीन लाख रुपए से पुर्नवास करने का दावा वन विभाग के अफसर करते हैं लेकिन साल भर के भीतर ही दीवारों पर आई दरार और बारिश में छतों से रिसकर मकान के भीतर पहुंचने वाले पानी की हर बूंद भ्रष्टाचार की दुहाई देता है.

इस गांव को 370 एकड़ कृषि भूमि देने का दावा विभाग के अफसर करते है लेकिन इस कृषि भूमि की हालत पर गांव के नौजवान वीर सिंह कहते हैं-''एक तो जंगल की जमीन हमें खेती करने दी गई है, उपर से खेत समतल नहीं होने के कारण इसमें अनाज नहीं उपजता. सिंचाई की सुविधा भी नहीं है और बिजली नहीं होने के कारण हमारे घरों में अंधेरा रहता है. बिजली की बात करने पर ठेकेदार पैसे मांगता है. हमारे पास तो पैसे नहीं है हम क्या करें ?''

होली राम को नई जगह से काफी उम्मीदें थी लेकिन किस तरह उनकी उम्मीदों पर पानी फिर गया, वे खुद ही बताते हैं- '' पुराने गांव में हमारे पास खेती की थोड़ी-सी जमीन थी, जिसमें हम मकई उपजाते थे. यहां आने पर हमें पांच एकड़ खेती की जमीन मिलने की उम्मीद थी और अधिकारियों ने कहा था कि वे आने वाले चार सालों तक उनकी जमीन को समतल करायेंगे. दूसरे साल ही नहीं आये तो अब शेष दो सालों का क्या भरोसा. साहब लोगों ने अस्पताल खोलने की बात कहीं थी, आज तक नहीं खुली.''

(एनएफआई की मीडिया फेलोशीप के तहत किये जा रहे अध्ययन का हिस्सा)