शुक्रवार, 30 दिसंबर 2011

अचानकमार में वन विभाग का जंगल राज

बैगा आदिवासियों का गैरकानूनी विस्थापन
 अचानकमार टाइगर रिजर्व में बाघों को बचाने के नाम पर वहां सैकड़ों सालों से रहने वाले बैगा आदिवासियों को हटाया जा रहा है. आदिवासियों को हटाने के नाम पर पिछले 2 सालों में तमाम नियम कायदे और कानून को ताक पर रख कर वन विभाग का जो जंगल राज चल रहा है, उसने इन बैगा आदिवासियों के सामने जीवन-मरन का प्रश्न पैदा कर दिया है. पुनर्वास के नाम पर वन विभाग ने बैगा आदिवासियों की जिंदगी जानवरों-सी कर दी है. नेशनल फाउंडेशन फार इंडिया के फेलोशिप के तहत सुनील शर्मा ने विस्तार से विस्थापन के इस मुद्दे पर लिखा है.इस रिपोर्ट को लगातार चार दिनों तक चार किस्तों में 19,20,21 व 22 दिसंबर 2011 को दैनिक छत्तीसगढ़ ने प्रमुखता के साथ प्रकाशित किया है.
पेश है पहली किस्त —


विस्थापन को लेकर केंद्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों को किस तरह ठेंगे पर रखा जाता है, इसे जानना-समझना हो तो आपको अचानकमार बाघ परियोजना से विस्थापन के नाम पर उजाड़े गये गांवों को जरुर देखना चाहिये. बाघ के नाम पर बरसों से जंगल के इलाके में रह रहे सैकड़ों बैगा आदिवासियों को केवल इसलिये गैरकानूनी तरीके से उजाड़ दिया गया क्योंकि वन विभाग के अफसरों को बजट में आवंटित पैसे आनन-फानन में खर्च करने थे. खर्च करने की यह हड़बड़ी क्यों थी, इसे वन विभाग के अफसरों से बेहतर कौन बता सकता है ! लेकिन वन विभाग के इस विस्थापन के लिये अपनाये गये मनमाने जंगल कानून की मार अब विस्थापित बैगा आदिवासी झेल रहे हैं. विस्थापन की तलवार 19 और गांवों पर लटक रही है और इन गांवों के हजारों आदिवासी विस्थापन का हाल देख कर डरे हुये हैं.

बीमार, बदहाल और तमाम जरुरी सुविधाओं से दूर इन आदिवासियों के विस्थापन के लिये बनाये गये चमकदार ब्रोशर और पावर प्वाइंट प्रजेंटेशन भले राज्य और देश की राजधानी में इस विस्थापन के लिये जंगल विभाग को शाबाशी दिलवा दें लेकिन विस्थापन की असली कहानी बेहद भयावह है. इस इलाके में रहने वाले बैगाओं के लिये इतिहास में पहला अवसर है, जब उन्हें अपने को जिंदा रखने के लिये देश के दूसरे इलाकों में पलायन करना पड़ा.

दिसंबर 2009 में बिलासपुर के अचानकमार टाइगर रिजर्व के 6 गांवों के बैगाओं को आधी रात को ट्रकों में भर कर जंगल के इलाके में छोड़ दिया गया था. पुनर्वास की एक भी व्यवस्था किये बिना. कहा गया कि इन आदिवासियों को 10-10 लाख रुपये मिलेंगे. लेकिन अपने गांवों से उजाड़े जाने से पहले न तो पंचायत कानून के तहत पंचायत की बैठक की गयी और ना ही पुनर्वास कमेटी की बैठक. तत्कालीन कलेक्टर सोनमणी बोरा कहते रहे कि बिना पुनर्वास कमेटी की बैठक के किसी का विस्थापन नहीं होगा. यहां तक कि आदिवासियों का विस्थापन हो जाने के बाद भी जब सामाजिक कार्यकर्ताओं ने उन्हें ज्ञापन सौंपा तब भी वे यही दुहराते रहे. दूसरी और वन विभाग ने राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण के दिशा-निर्देशों के उलट राज्य सरकार के किसी भी दूसरे विभाग से बिना संपर्क किये आदिवासियों के कथित पुनर्वास में पैसों की अफरा-तफरी और मनमाने तरीके से काम जारी रखा. आज दो साल बाद भी विस्थापित आदिवासियों को जमीन और मकान का पट्टा तक नहीं मिला है.

जंगल, बाघ और विस्थापन
वन क्षेत्रफल और वन राजस्व के हिसाब से छत्तीसगढ़ देश का तीसरा सबसे बड़ा राज्य है. राज्य के 44 फीसदी हिस्से में यानी 59558 वर्ग किलोमीटर में जंगल है लेकिन अकेले अचानकमार टाईगर रिजर्व एरिया के महज छह वन्य ग्रामों के विस्थापन के लिए 1250 एकड़ जंगल की कटाई की गई है. अभी 19 वन्य गांवों का विस्थापन और होना है.

बिलासपुर और मरवाही फारेस्ट डिवीजन में स्थित अचानकमार टाईगर रिजर्व एरिया के अंतर्गत 625.195 वर्ग किलोमीटर कोर जोन, 287.822 वर्ग किलोमीटर बफर जोन सहित कुल एरिया 914.017 वर्ग किलोमीटर है.
कोर एरिया का 551.552 वर्ग किलोमीटर एरिया अचानकमार वन्यप्राणी अभ्यारण्य में आता है और 74.643 नान प्रोटेक्टेड एरिया है. 20 फरवरी 2009 को अचानकमार टाइगर रिजर्व एरिया का नोटिफिकेशन जारी हुआ और उसके बाद यहां के 25 में से छह गांव जल्दा, कूबा, सांभरधसान, बोकराकछार, बांकल, बहाउड़ के पहले चरण के विस्थापन की प्रक्रिया शुरू हुई.

विस्थापन में न तो पुर्नवास नीति का पालन हुआ और न ही मानवता का ही ख्याल रखा गया. विशेष पिछड़ी जनजाति कहे जाने वाले बैगा आदिवासियों को धमकियां दी गई कि यदि उन्होंने उनकी बात नहीं मानी और वे यहां से जाने तैयार नहीं हुए तो फिर किसी भी घटना के लिए वे जिम्मेदार नहीं होंगे. कैमरे में रिकार्डेड बयान में आदिवासियों ने दावा किया कि जंगल के अधिकारियों ने आ कर धमकियां दी कि अगर गांव खाली नहीं किया तो यहां हाथी छोड़े जाएंगे और तुम सब मारे जाओगे.

आदिवासी डर गये और उन्होंने विस्थापित होना स्वीकार किया. बरसों से तिनका-तिनका कर जंगल के बीच बसाया आशियाना पलभर में उजड़ गया और आधे-अधूरे सामान के साथ परिवारों ने वहां से चले जाने में ही अपनी भलाई समझी.

आंकड़ों में पुनर्वास
विस्थापन और पुर्नवास पर गौर करें तो बांकल के तीस परिवारों के 127 लोगों को, बोकराकछार के 38 परिवारों के 136 , सांभरधसान के 17 परिवारों के 44 , जल्दा के 74 परिवारों के 258 , कूबा के 22 परिवारों के 52 तो बहाउड़ के 66 परिवारों के 254 लोगों को विस्थापित किया गया है. ऐसे में कुल विस्थापित परिवारों की संख्या 249और इनकी कुल जनसंख्या 866 है. इनमें अधिकांश परिवार बैगा आदिवासियों का है जबकि इनमें कुछ परिवार गोड़, उरांव और यादवों का भी है.

वन विभाग का दावा है कि सभी हितग्राही परिवारों को विस्थापित कर उनका नियमानुसार पुर्नवास किया गया है लेकिन ग्रामीणों का कहना है कि अभी बीस की संख्या में ऐसे लोग भी हैं, जो इससे वंचित हैं.
वंचित ग्रामीणों का कहना है कि उनके साथ वन विभाग ने धोखा किया है. टाईगर रिजर्व के लिए छह गांवों में निवास करने वाले परिवारों का सर्वे 2007-08 में किया गया था, जिसके मुताबिक करीब 270 परिवार चिन्हांकित किये गये थे, लेकिन 249 परिवारों का विस्थापन किया गया.

यह कैसे हुआ इस सवाल का जवाब देते हुए रामनारायण मरकाम बताते हैं- ''वन विभाग ने जब ग्रामीणों का विस्थापन किया तो उसने अपने ही द्वारा किये गये वर्ष 2007-08 के सर्वे को गलत बताते हुए वर्ष 2004-05 में हुए सर्वे का पालन किया. जिसके कारण कई परिवारों का विस्थापन नहीं हो सका. न उन्हें खेती की जमीन मिली और न मकान और न ही कोई अन्य सुविधा. जब उन्होंने इस मामले की शिकायत वन विभाग के अफसरों से की तो उन्होंने यह वायदा किया कि जब दूसरे चरण में पांच गांवों का विस्थापन होगा तब सभी वंचितों को शामिल कर लिया जाएगा. इसलिए वे शांत रहें.''

वंचित आदिवासियों को उस समय तो अफसरों की बात पर भरोसा हो गया लेकिन आज उन्हें इस बात का अहसास हो रहा है कि वे ठगे गये हैं. बांकल के लखन सिंह भी वंचितों में शामिल है और अपने पुराने गांव से बिछुड़ने और मकान और खेती के लिए जमीन नहीं मिलने के कारण वह शून्य में निहारते रहते हैं. वह अपने भाई सुकाल सिंह के साथ रहते हैं. सुकाल सिंह ने बताया कि उनका भाई पागल हो गया है और यहां आने से पहले वह सामान्य था. उसे मकान और जमीन नहीं मिलने पर गहरा सदमा लगा है.

लखन की तरह ही इसी गांव के बारी लाल, इतवारी, अर्जुन और रामनाथ को विस्थापन और पुर्नवास का लाभ नहीं मिला है. इतना ही नहीं बांकल के मुखिया महंगु के बेटे गिरधारी भी मकान और जमीन से वंचित है. सांभरधसान के भैयालाल और जनकराम बैगा, बोकराकछार के अनंदराम पिता गुलाब सिंह, अनंद राम पिता महेत्तर, प्रमोद पिता दुकालु राम,सुरेश और फूलबाई को उनका घर और जमीन नहीं मिली. फूलबाई अपने रिश्तेदार गरीबा के साथ रहती है जबकि अन्य वंचित या तो पलायन कर गये या फिर अपने रिश्तेदारों के घर किसी तरह रह रहे हैं.

कूबा और बहाउड़ के वंचितों की कहानी भी कुछ ऐसी ही है. बहाउड़ में दाउ सिंह, समार सिंह, इतवारी सहित अन्य कुछ लोग अपना अधिकार नहीं पा सके हैं. इन्हें वन अधिकार अधिनियम 2006 का हवाला देते हुए उनके अधिकार से वंचित कर दिया गया है, जबकि इनका आरोप है कि उनके साथ वन विभाग के अफसरों ने जान-बूझकर ऐसा किया है. उनका जीवन अधर में लटक रहा है. न उनके पास रहने के लिए मकान है और न खेती के लिए जमीन. वे न तो वापस अपने गांव लौट सकते हैं और न नये गांव में उनका ठिकाना रहा, ऐसे में आखिर वे जायें तो जायें कहा. कुछ दिनों तक रिश्तेदारों के यहां दिन काटने के बाद अब उन्होंने भी उनसे मुंह फेर लिया है, ऐसे में वे परेशान और दुखी है. वे मानते हैं कि यदि सबसे अधिक किसी का नुकसान हुआ है तो उनका.

लेकिन जिनका कथित पुनर्वास हुआ, उनके हिस्से भी वन विभाग के कागजी वायदे ही आये. वन अधिकार अधिनियम 2006 के मुताबिक विस्थापित परिवारों को जमीन का पट्टा वैसे भी दिया जाना था लेकिन आज तक उन्हें न घर का पट्टा मिला और न खेती की जमीन का. हद तो यह हो गई कि आदिवासियों को विस्थापन करने पेशा एक्ट का उल्लंघन किया गया. वन विभाग का दावा है कि इसके लिए ग्राम सभा की सहमति ली गई है लेकिन ग्रामीण इस बात से इनकार करते हैं.

विस्थापन के पहले न तो जिला पुर्नवास समिति की बैठक हुई और न ही जिला प्रशासन के अधिकारियों से कोई चर्चा की गई. राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण के दिशा-निर्देशों के अनुसार पहले दिन से जिला प्रशासन को विस्थापन और पुर्नवास में शामिल करना था लेकिन वन विभाग ने ऐसा नहीं किया. यही कारण है कि शासन की योजनाओं का लाभ आदिवासियों को आज भी नहीं मिल रहा है.

पूरे देश में महात्मा गांधी रोजगार गारंटी योजना का लाभ लोगों को मिल रहा है लेकिन बेरोजगारी की मार झेल रहे आदिवासी दूर-दराज जंगलों में या तो बांस कटाई या अन्य कार्य करने मजबूर है या फिर दिल्ली-आगरा जैसे शहरों में पलायन कर रहे हैं.


         



-सुनील शर्मा 
(एनएफआई की मीडिया फेलोशीप के तहत किये जा रहे अध्ययन का हिस्सा)
जारी...