रविवार, 29 अगस्त 2010

मां होने के मायने


-सुनील शर्मा

मां
और गुरू दो ऐसे रिश्ते है जिनका मानव जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ता है. बालक को मनुष्यता का पाठ पढ़ाने वाले मां और गुरू के बराबर किसी अन्य रिश्तों की कल्पना तक नहीं की जा सकती हालांकि वक्त के साथ अब इन रिश्तों के मायने भी बदल गए है. जहां मां और पुत्र को लेकर कई तरह के मामले सामने आए है, वहीं गुरू-शिष्य परंपरा आधुनिकता की बलिवेदी पर कुर्बान हो चुकी है.


जब शिशु जन्म लेता है तो उसे मां ही प्यार देती है. कुछ बड़ा होने पर शिशु द्वारा बोले जाने वाला पहला शब्द मां ही होता है. स्कूल के पहले मां ही शिक्षक की भूमिका निभाती है और वह उसके गुरु की तरह उसे अच्छी बुरी चीजों को बतलाती है. मां होना एक अभिमान की बात तो है ही साथ ही एक औरत की संपूर्णता भी मां बनने में ही मानी जाती है.

यह भी कहा जाता है कि औरत अपने पूरे जीवन में आत्मगौरान्वित रहती है और यदि जीवन में सफलता न भी मिले तो वह उतनी निराश नहीं होती, जितना कि पुरुष क्योंकि नारी नर को जन्म देती है जबकि पुरूष हमेशा कुछ न कुछ क्रिएट करने में लगा रहता है, अर्थात वह अपने कौशल से कुछ नया करने का प्रयास करता है दरअसल उसके भीतर कुछ जन्म देने की उत्कंठा सदा विद्यमान होती है. और जब सफलता नहीं मिलती तो वह उदास हो जाता है.

मां को श्रध्दा और विश्वास की संज्ञा दी जाती रही है और मां का स्थान ईश्वर के पहले भी बताया जाता है. मां में ईश्वरत्व के दर्शन होते है.

पर बदलते वक्त के साथ ऐसा लगता है कि मां होने के मायने भी बदल गए है. जहां नैतिक मूल्यों में गिरावट आई है वहीं सच-झूठ, न्याय-अन्याय और आदर्श-सिध्दांत का अर्थ भी बदल गया है.

अब मां भी अपने बच्चों के गलत कार्यों को सही ठहराने में पीछे नहीं है. मां-पुत्र के रिश्तों को समझाने और एक संपूर्ण ग्रामीण संघर्ष को दर्शकों तक पहुंचाने का काम किया था जाने-माने निर्देशक मेहबूब खान. पहली बार रूपहले पर्दे पर फिल्म मदर इंडिया के द्वारा.

इस फिल्म का खयाल जब भी जेहन में आता है तो लगता है कि काश आजकल की मां ऐसी होती. 1957 में रिलीज हुई इस फिल्म में शानदार अदाकारी करने वाली नरगिस भले ही पहले इससे पहले कई हिट फिल्मों में काम कर चुकी थी लेकिन उनके इस फिल्म की एक्टिंग को कोई कभी नहीं भूल सकता.

फिल्म के अंतिम दृश्य में वह अपने ही बेटे को इसलिए गोली मार देती है, क्योंकि वह गांव की इजत(औरत) के साथ जबरदस्ती करता है. फैड्रिकों फैलिनी की फिल्म नाईट और कैबेरिया से महज एक वोट पीछे रहने वाले इस फिल्म ने बेस्ट फारेन लैगवेंज फिल्म के लिए एकेडमी अवार्ड भी जीता.

मां और पुत्र के बीच प्रेम को लेकर कई फिल्मे बनी, साहित्यकारों ने कई साहित्य रचे और विविध रूपों व माध्यमों के आधार पर इस रिश्ते के अर्थ समझाए गए. कृष्ण-यशोदा पर सूरदास ने इतना लिखा कि उन्हें वात्सल्य रस का कवि कहा जाने लगा. आधुनिकता के इस दौर में मां-बेटे के रिश्तों में खटास आ गई. गाहे-बगाहे समाचार-पत्रों में प्रकाशित होने वाली खबरों को पढ़कर दिल दहल उठता है. कभी खबर आती है कि शराबी बेटे ने रुपए न देने पर मां की हत्या कर दी, तो कई बार बेहद अमर्यादित बाते निकलकर सामने आती है.

इस पचड़े में न पड़ते हुए मैं पिछले कुछ समय से आई बुराई की ओर ध्यान आकृष्ट करना चाहूंगा. हो यह रहा है कि अब मां पहले की मां की तरह नहीं रही. पहले मां पुरुष पर पूरी तरह आश्रित होती थी और पुत्र की रक्षा के लिए अपने पति से भी लड़ लेती थी. पर तब पुत्र इतनी बड़ी गलती कभी नहीं करते थे कि उसे माफ करने में पिता या समाज को कोई परेशानी हो.

नारी सशक्तिकरण ने मां की भूमिका को भी बदलकर रख दिया है. अब की मांओं के पास बच्चों को दूध पिलाने का समय भी नहीं है. हां भले ही वह स्तनपान दिवस मनाने के लिए तत्पर रहेंगी, लेकिन वह खुद ऐसा नहीं करती. ऐसा करने से उसे फीगर खराब होने का खतरा रहता है.

पहले मां अपने बच्चों को स्कूली शिक्षा से पहले ही अपने घरों में ही पिता, शिक्षक, बड़ों का आदर-सत्कार करने की शिक्षा देती थी और आज भी कुछ मां ऐसा करती होंगी पर अब तो कम ही ऐसा होता है जब बच्चों के मन में बड़े-बुर्जूगों के प्रति आदरभाव हो. इसकी लिए कौन दोषी है. एकल परिवार ने जहां आपसी रिश्तों की जड़े काट दी वहीं बच्चों को सुसंस्कृत नहीं किए जाने के कारण प्रेम लुप्त होता जा रहा है.

पहले गुरु का अर्थ ज्ञान देने वाले से लगाया जाता है अब यह बोलचाल की भाषा मजाक की तरह उपयोग में लाया जाता है. संस्कृत की भाषा के इस शब्द का दुरुपयोग एक बड़ी समस्या है. मां अपने बच्चों से गुरु का आदर-सम्मान करने कहती थी जबकि अब यदि बच्चा शिक्षक का सिर फोड़कर आए तो मां खुद को गौरान्वित महसूस करेगी, सोचेगी ठीक किया.इस बात से एक बात याद आती है.

पिछले करीब छह महीने से छत्तीसगढ़ स्थित गुरू घासीदास केंद्रीय विश्वविद्यालय में एक ऐसा मामला सुर्खियों में है जो यह बताता है कि कैसे गुरु-शिष्ट परंपरा का अपघटन हो रहा है. एक महिला सांसद का पुत्र यूनिवर्सिटी का छात्र था. चूंकि घटना के दिन कक्षा शुरू हो चुकी थी और एक शिक्षक तन्मयतापूर्वक छात्रों को पढ़ा रहे थे, तभी महिला सांसद का पुत्र जो उस कक्षा का छात्र था बगैर इजाजत के कक्षा में घुस आया. इस पर जब शिक्षक ने आपत्ति जताई तो छात्र ने गुस्से में आकर शिक्षक के ऊ पर कुर्सी फेंकते हुए हमला बोल दिया.
इससे शिक्षक घायल हो गए.

एक अन्य शिक्षक के साथ भी उसने मारपीट और गाली-गलौज किया. इसके बाद पूरी यूनिवर्सिटी में बात आग की तरह फैल गई और शिक्षकों ने लामबंद होकर छात्र के खिलाफ पुलिस में शिकायत करने की अपील यूनिवर्सिटी प्रबंधन से की. प्रभावशाली महिला का पुत्र होने के बाद भी उसकी शिकायत पुलिस में की गई. इसके बाद तो जैसे मामला और उलझ गया. महिला सांसद ने अपने पुत्र का बचाव करते हुए शिक्षकों के खिलाफ काउंटर केस दर्ज कर दिया.

इसके बाद यूनिवर्सिटी के प्राक्टोरियल बोर्ड (अनुशासन समिति)ने उक्त छात्र को निष्कासित करने का नोटिस जारी किया. इसके खिलाफ छात्र के वकील ने हाईकोर्ट में में याचिका दायर कर छात्र के खिलाफ लगाए गए आरोपों को गलत बताया. हाईकोर्ट ने दोनों पक्षों को सुना. इसके बाद कोर्ट ने छात्र को आदेश दिया कि वह शिक्षकों से अपने किए कि माफी मांगे.

छात्र यदि माफी मांग भी ले तो तो क्या शर्मसार हुई गुरू-शिष्य परंपरा को दोबारा सम्मानित किया जा सकता है और क्या इस घटना को भुलाया जा सकता. पर यदि इतने में ही मामला शांत हो जाता तो बात अलग थी. मामले का पटाक्षेप करने की बजाय अपने अहम की तुष्टि के लिए महिला सांसद ने यूनिवर्सिटी के अफसरों पर अनियमितता व भ्रष्टाचार,क्षेत्रीय लोगों की उपेक्षा सहित कुल नौ बिंदुओं में कई गंभीर आरोप लगा दिए.

उच्च स्तरीय जांच के लिए मानव संसाधन एवं विकास मंत्रालय को पत्र भेजा. बताया जा रहा है कि दूसरी बार मनोनीत सांसद बनने वाली इस कांग्रेस नेत्री को मानव संसाधन एवं विकास मंत्रालय के मंत्री कपिल सिब्बल ने मामले की जांच करने का आश्वासन दिया है. मजेदार बात तो यह है कि सांसद ने पुत्र मोह में आकर यूनिवर्सिटी में अनुशासनहीनता की शिकायत की है जबकि वह स्वयं जानती है कि अनुशासनहीनता की शुरूआत उसके पुत्र द्वारा ही की गई थी.

लगता है कि सांसद ने मेहबूब खान की फिल्म मदर इंडिया नहीं देखी, यदि देखी होती तो हो सकता है कि उन्हें मां होने के मायने समझ में आते. मां होने का मतलब यह नहीं है कि बच्चे की हर जिद पूरी की जाए. फिर चाहे वह शिक्षक का सिर फोड़े या किसी लड़की का बलात्कार.

जिद पूरी करने से बच्चे जिद्दी हो जाते है. कई बार पासा उलटा भी पड़ जाता है. भले ही नैतिक गिरावट आई है और गुरू-शिष्ट परंपरा जैसी कोई बात अब नहीं रही लेकिन इसका यह मतलब भी नहीं है कि ज्ञानदाता को जुते-चप्पल से सम्मानित किया जाए.

ऐसा करने से किसी और का नहीं बल्कि खुद का नुकसान होगा और मां ही ऐसे घृणित कार्य में अपने पद का दुरूपयोग करते हुए सहयोग करेगी तो फिर पता नहीं क्या होगा.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें