सोमवार, 27 सितंबर 2010

अंधेरी गलियों में बिलखता बचपन

सुनील शर्मा

छोटे-छोटे गंदे और मटमैले हाथों के सहारे पीठ पर बदबूदार पालीथिन के ढेर को एक बोरे में लटकाये सडक़ पर बिंदास अंदाज में चलते कई बच्चे अनायास ही दिखाई दे जाते हैं.
इनमें से कई भले ही नशा करते हो लेकिन इसके लिये वे कितने जिम्मेदार है, ये शोध का विषय है. इन बच्चों को देखकर यह भरोसा हो जाता है कि वास्तव में छत्तीसगढ़ के 50 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार है.

कहने को ये बच्चे है लेकिन इनमें से ज्यादातर हड्डियों के छोटे-छोटे ढांचे है जो मुंह-अंधेरे से देर शाम रात तक गंदी गलियों, बजबजाती और सड़ांध मारती नालियों में मारे-मारे फिरते हैं. पालीथिन बिन उसे बेचने और उससे मिलने वाले चंद रुपयों से अपने घरवालों के लिये रोजी-रोटी का इंतजाम करने वाले इन मासूमों की चिंता किसे हैं? यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका जवाब आज किसी के पास नहीं. कुछ ज्यादा कमाई होने पर कभी-कभी आने वाले इनके चेहरों की फींकी मुस्कुराहट को छोडक़र ज्यादातर इन्हें उलझन और चिंतिंत ही देखा जा सकता है.

इन बच्चों के चेहरों की उदासी बयान करती है कि किस तरह इनका बचपन अंधेरे गलियों में बिलख-बिलख कर दम तोड़ रहा है और हमारा छत्तीसगढ़ दस सालों में विश्वसीनय होने के साथ ही जीडीपी ग्रोथ के मामले में गुजरात जैसे उन्नत राज्य को पछाड़ चुका है. जीडीपी ग्रोथ 11 प्रतिशत से भी अधिक हो गया और अभी भी प्रदेश के ढाई लाख बच्चे स्कूलों से केवल इसलिए दूर है, क्योंकि कभी उन्हें उनके अभिभावकों को यह बताया ही नहीं गया कि स्कूल जाने से क्या होगा.

रोज सुबह होती है और रोज शाम, लेकिन समाज के हर व्यक्ति के लिए इस सुबह और शाम में फर्क है. छत्तीसगढ़ के 16 हजार वैध और तकरीबन 25 हजार अवैध शराब दुकानों से रोज लाखों लीटर शराब लोगों की पेट में पहुंचता है और नशे की सूरत में अनगिनत अपराध कराता है. कई ऐसे लोग है जिन्हें सोने के लिए शराब चाहिये. इन मासूमों को सोने के लिये तो बिस्तर की जरूरत है और ही किसी अन्य चीज की हां ये बात अलग है कि पेट खाली होने के कारण कभी-कभी इन्हें देर तक नींद नहीं आती. कई बच्चों को खुले में रेलवे स्टेशन और बस स्टैंड के प्लेटफार्म पर सोते हुए रोज रात में देखा जा सकता है. क्या इन बच्चों की तुलना अंग्रेजी स्कूलों में पढऩे वाले उन बच्चों से कभी हो सकती है, जिनके माता-पिता एक साल की पढ़ाई के लिए एक से डेढ़ लाख रुपये तक खर्च करते हैं.

जानकर आश्चर्य हो कि इनमें से ज्यादातर ने अपने वर्तमान से समझौता करने के साथ अपना भविष्य भी खुद ही तय कर लिया है. वे जानते हैं कि उनका भविष्य कुछ खास रहने वाला नहीं है. समाज का यह काला सच नंगी आंखों से रोज ही दिखाई देता है लेकिन लाखों में कोई एक ही होता है, जो बच्चों के दर्द को शिद्दत से महसूस करता है, शेष तो तेजी से अपने काम में आगे बढ़ जाते हैं.

मासूमों का बिलखता बचपन कभी अनवरत होने वाले रेलवे स्टेशन के एनाउंसमेंट तो कभी ट्रेन और बस से निकलने वाले भोपू के तेज स्वर में दबकर रह जाते हैं. अंधेरी गलियां तो जैसे इनका साथी है. वहां के किसी कोने में इनका बचपन दम तोड़ते हुये अक्सर देखा जा सकता है. इनका दर्द बांटने वाला, इनके खोते बचपन को संवारने वाला कौन है? फिर इस तेज रफ्तार दुनिया में किसे इतनी फुर्सत है.

गंभीर बात यह भी है कि इनके खोते बचपन के साथ ही ये बड़ी ही तेजी से अपराध की ओर अग्रसर हो रहे हैं. छोटे से छोटे शहर में भी रोज कोई कोई बच्चा या तो अपराधी बन रहा है या फिर वह नशे में डूब रहा है. जानकर यह आश्चर्य हो कि पूरे प्रदेश में परिवार नियोजन में नंबर वन और राज्य की ऊर्जाधानी कहे जाने वाला कोरबा बाल अपराध की दृष्टि से भी नंबर वन है. कोरबा में ही सबसे ज्यादा बच्चे अपराध करते हैं. इस बात पर यकीन आने पर प्रदेश के बाल संपे्रक्षण गृहों में जाकर पता लगाया जा सकता है.

समाचारों के संकलन के लिए कई बार बिलासपुर में स्थित बाल संप्रेक्षण गृह जाने का मौका मिला, जहां हर बार कोरबा के बच्चों की संख्या दो तिहाई से भी अधिक थी. ये बच्चे रेप, मर्डर, पाकिटमारी, चोरी, डकैती सहि कई संगीन जुर्म कर यहां आये थे. अभी भी कोरबा के अपराधी बच्चों की संख्या बाल संपे्रेक्षण गृह में सबसे अधिक है. ऐसा माना जाता है कि जब से कोरबा में औद्योगिक विकास हुआ है तब से ही बाल अपराध के मामले भी तेजी से बढ़े है.

यहां पर दो छोटी घटनाओं का जिक्र करने से मैं खुद को नहीं रोक पा रहा हूं. करीब छह महीने पहले की बात है. मैं और मेरे एक मित्र आफिस का काम खतम करके रेलवे स्टेशन में प्लेटफार्म नंबर एक में चाय पी रहे थे. रात के करीब 11.30 बजे थे. तभी अचानक नन्हें और मटमैले हाथों में पानी की बोतल थामे एक लडक़ा यात्रियों से पानी की बोतल खरीदने की गुहार लगा रहा था. गाड़ी खड़ी थी और कई यात्रियों से काफी देर तक मिन्नते करता रहा. पर किसी को उस पर दया नहीं आई. पर उसने हार नहीं मानी और वह गुहार लगाता रहा. हो सकता है कि उसके और बड़ी-बड़ी कंपनियों के बोतलबंद पानी में अंतर हो, लेकिन उसकी आंखों से निकलने वाले मोती के मानिंद पानी की कीमत उस पानी से कहीं अधिक थी.

जब
मुझसे नहीं रहा गया तो मैंने दस रुपये देकर उससे एक बोतल खरीद लिया. रुपये मिलते ही वह झटपट दौड़ता हुआ कैंटीन की ओर भागा और जब लौटा तो उसके हाथ में दो समोसे थे. जिसे वह ऐसे खा रहा था जैसे वर्षों से भूखा हो. खाने के दौरान भी वह रो रहा था पर इस बार खुशी के आंसू थे.

दूसरी घटना कुछ ऐसी हुई कि एक बार एक रिपोर्टिंग के सिलसिले में मैं अपने एक मित्र के साथ जा रहा था. तभी एक गली में 14-15 साल की लडक़ी दिखी जिसके बाल उसके चेहरे पर लटक रहे थे. वह खामोशी से दीवार पर टिकी थी. मैंने उससे एक व्यक्ति के घर का पता पूछा तो वह तो उसने जवाब नहीं दिया. मैंने पुन: उससे जब पूछा तो वह लगभग चीखते हुये वहां से नहीं मालूम कहकर चली गई. करीब एक महीने बाद मैं रिपोर्टिंग के सिलसिले में ही अस्पताल गया था. वहां एक बिस्तर पर वहीं लडक़ी मुझे लेटी हुई दिखाई दी. मैं ठिठक गया. डाक्टर से जब मैंने उस लडक़ी के बारे में पूछा तो उसने बताया कि लगातार नशा करने के कारण वह गंभीर बीमारी की शिकार हो गई है और वह पूरी तरह शायद ही ठीक हो पाये. हो सकता है कि उसकी मौत भी हो जाये.

मैं सोचने लगा कि आसमान पर कितने तारे है. रोज उन्हें कोई कोई देखता है. कई लोग तो तारों की पूजा भी करते हैं. ध्रुव तारा तो हिंदूओं के विवाह के समय इतना महत्वपूर्ण हो जाता है कि दुल्हा-दुल्हन को उसके दर्शन करवाये जाते हैं. परिजन भगवान से प्रार्थना करते हैं कि जिस तरह ध्रुव तारा अटल है उसी तरह नवदंपति का संबंध भी अटल रहें.

पर क्या हम और आप और क्या स्वयं तारे जमीन पर फिल्म बनाने वाले आमिर खान सडक़ पर जीने मरने वाले लाखों तारों की परवाह कर पाते हैं. विदेशी रुपये से देश में सर्वशिक्षा अभियान चलाने वाली सरकार ने प्रयास किया है कि वह इन बच्चों को स्कूलों तक ले जाये लेकिन क्या इसमें उसे सफलता मिली है. अरबों रुपये के भ्रष्टाचार का खुलासा होने के बाद सर्वशिक्षा अभियान का स्कूल चले हम का नारा फींका तो पड़ा ही अन्य बाल विकास योजनाओं का भी बुरा हाल है. आंगनबाडिय़ों में बच्चों के लिये दिये जाना वाला दलियां पशु खा रहे हैं, बच्चों को मुफ्त बांटने के लिये दी जाने वाली किताबों को शिक्षक कबाडिय़ों को बेच रहे हैं. कुल मिलाकर बुरा हाल है.

खोते
बचपन की चिंता करनी होगी. आखिर कब तक देश का भविष्य समझे जाने वाले बच्चे सडक़ पर ठोकर खाते, नालियों में पालीथिन बिनते हुए और अंधेरी गलियों में नशा करते रहेंगे. इनके बचपन की रक्षा करने की जवाबदारी सरकार के साथ ही हम लोगों की भी है. मैं इस कविता के साथ अपनी बात खतम करता हूं.

मैंने भी देखा है बचपन कचरे के डिब्बों में
पॉलीथीन की थैलियाँ ढूंढते हुए
तो कभी कबाड़ के ढेर में
अपनी पहचान खोते हुए
कभी रेहड़ियों पर तो
कभी ढाबे, पानठेलों पर

पेट के इस दर्द को मिटाने
अपने भाग्य को मिटाते हुए

स्कूल, खेल, खिलौने, साथी
इनकी किस्मत में ये सब कहाँ
इनके लिए तो बस है यहाँ
हर दम काम और उस पर
ढेरों गालियों का इनाम

दो वक्त की रोटी की भूख
छीन लेती है इनसे इनका आज
और इन्हें खुद भी नहीं पता चलता
दारु, गुटका और बीड़ी में
अपना दर्द छुपाते- छुपाते

कब रूठ जाता है इनसे
इनका बचपन सदा के लिए I
और समय से पहले ही
बना देता हैं इन्हें बड़ा
और गरीब भी...!


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