शनिवार, 4 सितंबर 2010

एक पुरस्कार और सौ इफ्तिखार



अभिषेक श्रीवास्तव

एनडीटीवी की नीता शर्मा को साल के सर्वश्रेष्ठ रिपोर्टर का पुरस्कारमिलने की खबर बुधवार को आई, तो सबसे पहले इफ्तिखारगिलानी का चेहरा आंखों में घूम गया. अभी पिछले 25 को ही तोकांस्टिट्यूशन क्लब के बाहर यूआईडी वाली मीटिंग में वह दिखे थे.

वैसा ही निर्दोष चेहरा, हमेशा की तरह विनम्र चाल और कंधे पर झोला... शायद. खबर आते ही एक एक वरिष्ठसहकर्मी उछले थे, ''गजब की रिपोर्टर है भाई... उसकी दिल्ली पुलिस में अच्छी पैठ है.'' जब मैंने इफ्तिखार काजिक्र किया, तो उन्होंने अजीब-सा मुंह बना लिया.

एक रिपोर्टर की ''दिल्ली पुलिस में अच्छी पैठ'' का होना क्या किसी दूसरे रिपोर्टर के लिए जेल का सबब बन सकताहै? टीवी देखने वाले नीता शर्मा को जानते हैं तो प्रेस क्लब और आईएनएस पर भटकने वाले गिलानी को. लेकिनटीवी और अखबारों के न्यूजरूम में कैद लोग शायद यह नहीं जानते कि अगर हिंदुस्तान टाइम्स में रहते हुए नीताशर्मा ने गलत रिपोर्टिंग नहीं की होती, तो शायद गिलानी को तिहाड़ में उस हद तक प्रताड़ना नहीं झेलनी पड़तीजिसके लिए 'अमानवीय' की संज्ञा भी छोटी पड़ जाती है.

गिलानी की लिखी पुस्तक 'जेल में कटे वे दिन' पढ़ जाएं, तो जानेंगे कि इसी दिल्ली में कैसे एक पत्रकार खुद अपनीही बिरादरी का शिकार बनता है. गिलानी की कहानी में खलनायक नीता शर्मा उतनी नहीं, जितने वे पत्रकार हैंजिन्होंने उन्हें पुरस्कांर दिया है, जिन्होंने खबरें लाने को पुलिस का भोंपू बनने का पर्याय समझ लिया है, जिनपत्रकारों ने कभी जाना ही नहीं कि आखिर आईएनएस-प्रेस क्लब और पुलिस हेडक्वार्टर के बीच की कड़ी उन्हीं केबीच जगमगाते कुछ चेहरे हैं.

हिंदू के पत्रकार सिद्धार्थ वरदराजन ने नीता शर्मा के बारे में जो लिखा है, उसे जरा देखें: ''जहां तक उस क्राइमरिपोर्टर का सवाल है जिसने दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल द्वारा फीड की गई स्टोरी को छापा, उसने कभी कोईमाफी नहीं मांगी. एक सहकर्मी की शादी में इस रिपोर्टर से मेरा परिचय 2004 में हुआ. मैंने जब उससे कहा किइफ्तिखार गिलानी के मामले में उसने जो हिट काम किया है, उसे लेकर मेरी कुछ आपत्तियां हैं, तो उसने कहा, 'मैंकिसी इफ्तिखार गिलानी को नहीं जानती.'

मैं नाराज तो जरूर हुआ, लेकिन सोचा कि उसे एक सलाह दे ही डालूं, 'जिन पुलिस अधिकारियों ने उस स्टोरी कोप्लांट करने में तुम्हारा इस्तेमाल किया, वे तो अपनी प्रतिष्ठा बचा कर निकल लिए, लेकिन जो तुमने किया, वहहमेशा एक पत्रकार के रूप में तुम्हारी प्रतिष्ठा पर दाग की तरह बना रहेगा, जब तक कि तुम इफ्तिखार से माफीनहीं मांग लेती.'
सिद्धार्थ आगे लिखते हैं: ''नीता शर्मा की स्टो्री पुलिस के लिए महत्वपूर्ण थी क्योंकि यह ठीक ऐसे समय में आई, जब अनुहिता मजूमदार और इफ्तिखार के अन्य मित्रों द्वारा तैयार एक याचिका खबरों में थी. 10 जून को इस बारेमें एक छोटी-सी खबर टाइम्स ऑफ इंडिया में आई थी और पुलिस आईबी को तुरंत अहसास हो गया कि किसीभी किस्म की पत्रकारीय एकजुटता को सिर उठाते ही कुचल देना उनके लिए जरूरी है.

संपादकों पर दबाव बनाया जा सकता था (और वे झुके हुए ही थे) लेकिन इफ्तिखार के पक्ष में किए जा रहे प्रचारअभियान के खिलाफ इससे बेहतर क्या हो सकता था कि उसी के द्वारा फर्जी स्वीकारोक्ति करवाई जाए कि वहआईएसआई का एजेंट रहा है.

तुरंत ऐसी खबरों की बाढ़ गई और अधिकांश भारतीय मीडिया में कलंकित करने वाली रिपोर्टें आने लगीं जिसमेंइफ्तिखार पर एक षडयंत्रकारी और आतंकवादी, तस्कर और जिहादी, यौन दुष्कर्मी और भारतीय जनता पार्टी केसांसद कभी खुद पत्रकार रहे बलबीर पुंज के शब्दों में 'पत्रकार होने का लाभ ले रहे एक जासूस' होने के आरोपलगाए जाने लगे.''

ऑफिशियल सीक्रेट्स एक्ट के तहत सात महीने जेल में रहे कश्मीर टाइम्स के तत्कालीन ब्यूरो प्रमुख इफ्तिखारगिलानी के मामले में रिपोर्टिंग के स्तर पर सिर्फ नीता शर्मा ने, बल्कि आज तक के दीपक चौरसिया और दैनिकजागरण आदि अखबारों ने भी गड़बड़ भूमिका अदा की.

मन्निका चोपड़ा ने गिलानी से एक इंटरव्यू लिया था (जो अब भी सैवंती नैनन की वेबसाइट ' हूट' पर मौजूद है) जिसमें गिलानी ने बताया था कि दीपक चौरसिया ने उनके घर से लाइव रिपोर्ट किया कि गिलानी फरार हो गए हैं, जबकि वह घर में ही थे. दीपक चौरसिया ने 'सनसनीखेज खबर' दी कि पुलिस ने गिलानी के पास से एक लैपटॉपबरामद किया, जिसमें अकाट्य सबूत हैं. गिलानी ने साक्षात्कार में कहा, 'मेरे पास लैपटॉप है ही नहीं.'

इस साक्षात्कार के कुछ अंश देखें:

''दैनिक जागरण ने लगातार अपमानजनक रिपोर्टें छापीं और इसकी कीमत मुझे तिहाड़ जेल में चुकानी पड़ीक्योंकि अधिकतर कैदी उसी अखबार को पढ़ते थे. तीन हत्या़ओं के आरोप में कैद एक अपराधी ने मुझ पर हमलाकर दिया यह कहते हुए कि मैं भारतीय नहीं हूं, गद्दार हूं. उसने इन रिपोर्टों को पढ़ा था. कुछ हिंदी और उर्दू केअखबार खबर का शीर्षक लगा रहे थे, 'इफ्तिखार गिरफ्तार, अनीसा फरार'. (अनीसा इफ्तिखार की पत्नी हैं).

''लेकिन असल चीज जिसने मुझ पर और मेरे परिवार पर सबसे ज्यादा असर डाला, वह 11 जून को हिंदुस्तानटाइम्स में छपी चार कॉलम की स्टोरी थी जो कहती थी कि मैं आईएसआई का एजेंट हूं. यह खबर नीता शर्मा केनाम से थी. आश्चर्यजनक रूप से रिपोर्टर ने मेरे हवाले से बताया कि मैंने एक सेशन कोर्ट में सुनवाई के लिए पेशहोते वक्त स्वीकार कर लिया है कि मैं एजेंट हूं और मैंने गैर-कानूनी काम किए हैं. बाद में एक पुलिस अधिकारी नेमुझसे पूछा कि क्या मैंने किसी रिपोर्टर से बात की थी, तो मैंने इनकार कर दिया.

इसने वास्तव में मेरे परिवार को और मुझे काफी दुख पहुंचाया. अगले ही दिन मेरी पत्नी ने एचटी की कार्यकारी औरसंपादकीय निदेशक शोभना भरतिया से इसकी शिकायत की और कहा कि यह सब गलत है, उन्हें माफी मांगनीचाहिए. अखबार ने अगले दिन माफी छापी.''

सिर्फ एचटी ने ही नहीं, गिलानी के रिहा होने पर कई पत्रकारों ने उनसे माफी मांगी, खेद जताया. सिर्फ नीता शर्माउन्हें भूल गईं और कामयाबी की सीढि़यां चढ़ते हुए एनडीटीवी पहुंच गईं. आज वह सर्वश्रेष्ठ रिपोर्टर भी बन गई हैं.

गिलानी पत्रकार हैं, सो मामला सामने गया. कौन जाने, कितने लोग होंगे जिन्होंने इस तरह की रिपोर्टिंग केकारण पुलिस का दंश झेला होगा और झेल रहे होंगे.

सिद्धार्थ वरदराजन ने नीता शर्मा से मुलाकात में जो कहा, वह छह साल पहले की बात है. उन्हें उम्मीद नहीं रहीहोगी कि गिलानी वाले मामले पर गलत रिपोर्टिंग में जिस व्यक्ति को वह 'पत्रकार के रूप में प्रतिष्ठा पर एक दाग' झेलने की बात कह रहे थे, उसे आज मीडिया पुरस्कार देगा. लेकिन क्या गिलानी के मामले में नीता शर्मा ने जोकुछ लिखा था, उसे पत्रकारिता माना जाना चाहिये ?

पत्रकार तो इफ्तिखार हैं, जिन्होंने हुर्रियत नेता गिलानी का दामाद होने के बावजूद अपनी कलम की रोशनाई पररिश्ते् की धुंध कभी नहीं छाने दी, जबकि नीता शर्मा जैसे मीडियाकर्मी उस चरमराती लोकतांत्रिक मूल्य व्यवस्थाके लोग हैं जिसके पहले, दूसरे, तीसरे और चौथे खंभे पिघल कर आज एक खौफनाक साजिश के दमघोंटू धुएं मेंतब्दील हो चुके हैं- जिसमें हर मुसलमान आतंकवादी दिखता है, हर असहमत माओवादी और हर वंचित अपराधी.

आलोक तोमर की प्रतिक्रिया

अभिषेक ने जो लिखा है वह भी लिखा जाता तो भी नीता शर्मा और उनकी तरह के पुलिस की खबरें प्लांट करनेवाले तथाकथित अपराध संवाददाताओं की चांदी हैमैं कई को जानता हूं जिनके थानों से हफ्ते बंधे हुए हैंनीताशर्मा के बारे में पता नहींनीता से ज्यादा गुस्सा उस ज्यूरी पर आना चाहिए जिसमें विनोद मेहता के नेतृत्व मेंकई बड़े नाम हैं और उन्हें एक सही अच्छा संवाददाता नज़र नहीं आयाइफ्तिखार गिलानी की गिनती हमेशा उनपत्रकारों में होती है जो जन्म और संस्कार से कश्मीरी होने के बावजूद भारत विरोधी या आलगाववाद समर्थक नहींहैंमगर दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल किसी को कुछ भी बना सकती है और झूठ बोलने में तो दिल्ली पुलिस काजवाब ही नहीं हैआप मेरी कहानी भी सुन लीजिए

दिल्ली पुलिस का एक मुख्य हवलदार हुआ करता था केके पॉल उसका बेटा वकील था (अब भी है) उस समय बापकेके पॉल के जिम्मे जिन अपराधियों को सज़ा दिलवाने की जिम्मेदारी हुआ करती थी उनके सपूत अमित पॉलउनके वकील हुआ करते थेबाप का असर काम आता था और अमित पॉल ने बड़े बड़े ठगों, हत्यारों औरजालसाजों को जमानतें दिलवाईंबड़ी तगड़ी फीस मिलती थी..

ज़ाहिर है कि एक जूनियर वकील को मोटा पैसा मिले तो उसकी औकात के हिसाब से फीस उसकी और बाकी मालउसके बाप का..यही सब छापा था और पॉल सफाई देने के लिए तैयार नहीं थेइसके बाद डेनमार्क के पैगम्बर वालेहरामीपन भरे कार्टूनों को बनाने और प्रकाशित करने की मानसिकता के खिलाफ एक छोटी-सी टिप्पणी लिखी तोस्पेशल सेल वाले उठा ले गएअदालत से झूठ बोला कि बाहर दंगा हो रहा है और सीधे तिहाड़ पहुंचा दिया

वहां हाई सिक्योरिटी में और उसी वार्ड में जहां गिलानी रहे थेआतंकवादियों और हत्यारों के साथ बंद कर दियागयाऔर तो और उस मीडिया समूह के मालिक विजय दीक्षित को भी अंदर कर दिया गयाउनका कसूर ये थाकि उन्होंने अल्पसंख्यक समुदाय से माफी मांगी थीस्टार टीवी, आजतक और जीटीवी ने तो पुलिस हिरासत मेंमुझसे फोन पर बात की मगर थाने से मुश्किल से एक किलोमीटर दूर एनडीटीवी में यही नीता शर्मा बकवास कररही थी (मुझे बाद में पता लगा) कि मेरे डेनमार्क के उस अखबार से (जहां पैगम्बर वाले कार्टून छपे थे) सीधे संबंधहैं

वाशिंगटन से लेकर फ्रांस और लंदन से लेकर जोहानिसबर्ग के प्रेस क्लब भारत के राष्ट्रपति और गृहमंत्री को इसगिरफ्तारी के खिलाफ पत्र भेज रहे थेमेरे पास वकील को देने के लिए पैसे भी नहीं थेमगर एनडीटीवी और एकअखबार ने लिखा कि आलोक तोमर के पास करोड़ों रुपए का एक मकान है जो विवादास्पद कमाई से खरीदा गयाहैएक अखबार के संपादक एक टीवी चैनल पर बैठकर सवाल कर रहे थे कि आलोक तोमर को पत्रकार मानताकौन हैमेरे घर पर भी छापा पड़ा था और सबकुछ तितर-बितर कर दिया गया था

ऑफिस के सारे कम्प्यूटर जांच के लिए पुलिस उठा ले गई थीएक तरफ स्वर्गीय प्रभाष जोशी और स्वर्गीयकमलेश्वर बिना किसी समन के अदालत में हाजिर होकर मेरे निर्दोष होने की कसम उठाने के लिए तैयार थेदूसरी तरफ नीता जैसे पत्रकार मुझे पेशेवर आतंकवादी साबित करने पर तुले हुए थे.
इफ्तिखार गिलानी उम्र में छोटे हैं और मुझसे ज्यादा वक्त उन्होंने तिहाड़ में काटा हैकायदे से इस देश केप्रधानमंत्री वाजपेयी को या कम से कम चकाचक कपड़े पहनने वाले गृहमंत्री आडवाणी को गिलानी के चरणों परगिर कर माफी मांगनी चाहिए थी. गिलानी का कसूर सिर्फ ये था कि वो कश्मीरी हैं और दिल्ली पुलिस औरखासतौर पर स्पेशल सेल हर कश्मीरी को शक की निगाह से देखती है.

गिलानी से अनुरोध है कि तिहाड़ जेल में ही बंद सैकड़ों निर्दोष कश्मीरियों को आजाद कराने की मुहिम चलाएं औरमेरी जितनी औकात होगी मैं साथ देने के लिए तैयार हूं. आखिर में अभिषेक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं.

aloktomar@hotmail.com, नई दिल्ली

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