शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

निशाने पर क्यों हैं किसान



मेधा पाटकर


अलीगढ़ के किसानों द्वारा एक्सप्रेस वे के अतिरिक्त इसके इदगिर्द स्थित हजारों गांवों की कुछ किलोमीटर तक की जमीनें हड़पने का आरोप लगाने के बाद, देश की राजनीति तय करने वाले उत्तरप्रदेश की राजनीतिक भूमि पर हलचल मच गई और तमाम राजनेताओं को इस विषय पर अपनी भूमिका स्पष्ट भी करना पड़ी. भूमि अधिग्रहण एक बार पुन: नए सिरे से मुद्दा बन गया है. पहले भी नर्मदा से लेकर नंदीग्राम और रायगढ़ से लेकर सोमपेटा तक यह ज्वलंत मुद्दा था.


राज्य का सार्वभौम सत्ता का अधिकार नहीं बल्कि 'अहंकार' किसानों, आदिवासियों, दलितों की भूमि पर आक्रमण कर भरे पूरे गांवों को खत्म कर वहां शहर बसाने के लिए बिल्डरों और कंपनियों को कर में राहत देते हुए उन्हें उजाड़ने की साजिश कर रहा है. यह अहंकार 'सेज', नदी व नदी-घाटियों को समाप्त कर वहां रहने वाले समाज और संस्कृति को नष्ट करने में भी साफ दिखाई देता है. अब समय आ गया है, जब इस अधिग्रहण में कितना विकास और कितना सार्वजनिक हित है; का जवाब जनता को दिए जाने को भूमि अधिग्रहण की पूर्व शर्त माना जाए. इसलिए इस ब्रिटिशकालीन भूमि कानून के खिलाफ संघर्ष को तेज करना आवश्यक है.

राज्य द्वारा 'विकास' के नाम पर किए जा रहे अत्याचारों के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष कर रहे माओवादियों से हथियार डालने के बाद चर्चा का वादा करती नजर आती सरकारें देश भर में नदी-घाटियों से लेकर खनन और सेज के विरुध्द चल रहे अहिंसक आन्दोलनों से चर्चा करने से न केवल बचती रही हैं बल्कि इन स्थानों पर राज्य अपना एजेंडा थोपती नजर आती है
अलीगढ़ में दो किसानों की शहादत के बाद ही सही पर राजनीतिक दलों द्वारा भूमि अधिग्रहण कानून में 'नियोजित संशोधनों' को जिस तेजी से लोकसभा में पारित कराने की घोषणा की गई है, उससे लगता है कि राजनीतिज्ञ इस मसले पर अभी भी गंभीर नहीं हैं.

इससे पहले 1998 में एक प्रयास हुआ था. इसके बाद 2008 में और इन दोनों के बीच जिस तरह 2005 में बिना बहस के संसद ने 'सेज' कानून को पारित किया, ठीक उसी तरह इस बार भी कुछ संशोधनों के साथ भूमि अधिग्रहण कानून को पारित करने के प्रयास होंगे.

भूमि अधिग्रहण की संकल्पना की बुनियाद में है 'राज्य की सार्वभौम सत्ता' का सिद्धांत. इसमें भूमि और उससे जुड़े सभी प्राकृतिक संसाधन और संपदाएं शामिल हैं. साम्राज्यवादी शासकों की इन आवश्यकताओं को आजाद भारत के शासकों ने न केवल ज्यों का त्यों अपनाया, बल्कि 1984 में कंपनियों के लिए जमीन उपलब्ध करवाने को भी सार्वजनिक हित की परिभाषा में लेकर औपनिवेशिक शासकों को भी पीछे छोड़ दिया.

इसके बाद शोषण का नया दौर उद्योग और रोजगार के नाम पर शुरु हो गया और आज खेती, किसानी और खाद्य सुरक्षा विनाश के कगार पर खड़ी हैं. इसी के साथ खेती और उस पर निर्भर समाज की अवमानना का दौर भी प्रारंभ हो गया. इसका सत्यापन इस बात से होता है कि नए मसौदे में और भी खतरनाक प्रावधान हैं. इसके अंतर्गत निवेशक द्वारा 70 प्रतिशत निजी भूमि क्रय करने पर बकाया 30 प्रतिशत सरकार द्वारा अधिग्रहित कर देने का प्रावधान धमकी के रूप में कार्य करेगा.

सारी दुनिया में लोकतंत्र का डंका बजाने वाले भारत को यदि शर्मिंदा होने से बचना है तो उसे वर्तमान भूमि अधिग्रहण कानून को रद्द ही करना होगा. इसके बदले एक व्यापक विकास नियोजन का कानून प्रस्तावित करना होगा. इसके अन्तर्गत शासन को कुछ संसाधन अपने हक में लेने का अधिकार तो होगा लेकिन लोकतंत्र की चुनी हुई स्थानिक इकाईयों द्वारा अपरिहार्य न्यूनतम अधिग्रहण की मंजूरी देने के बाद ही ऐसा संभव हो पाएगा.

इसके लिए सर्वप्रथम जरूरी है, खेती से गैर खेती के कार्यों में भूमि को हस्तांतरित करने पर रोक लगाना. जिस तरह सैद्धांतिक तौर पर भारत में धरती पर 33 प्रतिशत वनोच्छादन को स्वीकृति मिली है, ठीक उसी प्रकार भूमि को खाद्यान्न उपजाने के लिए भी सुरक्षित रखा जाना अनिवार्य है.

ग्रामसभाओं को प्राप्त संवैधानिक अधिकारों को मान्यता प्रदान कर उनकी असहमति की स्थिति में अधिग्रहण स्थगित कर दिया जाना चाहिए. इसी के साथ यह भी तय करना होगा कि विकास में समता, न्याय के साथ ही साथ न्यूनतम विनाश और विस्थापन हो. यह भी स्पष्ट है कि अब सब कुछ सत्ता की होड़ में लगे राजनीतिक दलों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता. नए कानून में देश के 6 लाख गांवों को योजना की स्वीकृति का अधिकार देना होगा. साथ ही केंद्रीकृत सत्ता, विदेशी साहूकारी संस्थाओं या कंपनियों, पूंजीपतियों की चापलूसी करने वाले नियोजनकर्ताओं, प्रकृति से अंजान और परावलंबी बुध्दिजीवियों को भी अपना-अपना स्थान दिखाना होगा.

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