शुक्रवार, 3 सितंबर 2010

छत्तीसगढ़, जीडीपी और कुल्हाड़ीघाट



दिवाकर मुक्तिबोध, रायपुर से

छत्तीसगढ़ सरकार इस बात से प्रसन्न हो सकती है कि सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी के आंकड़ों में उसने बाजी मारी है. 11.49 प्रतिशत की उसकी विकास दर देश में सर्वोच्च है. इस मामले में उसने विकसित गुजरात को भी पीछे छोड़ दिया है.

यही नहीं प्रति व्यक्ति औसत आय दस वर्षों में तिगुनी हो गयी है. वर्ष 2000-2001 में औसत आय 10 हजार रुपए थी, जो 2009-10 में बढ़कर 34 हजार 483 रुपए हो गयी. निश्चय ही ये आंकड़े सरकार को सुकून देने वाले हैं. लेकिन खुशी के इन लम्हों के बीच उसे विश्व बैंक की उस रिपोर्ट का भी अध्ययन कर लेना चाहिए जिसमें दुनिया के देशों में गरीबी का मूल्यांकन किया गया है. इस रिपोर्ट में छत्तीसगढ़ को सबसे गरीब राज्य बताया गया है, जहां 45 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करते हैं. राज्य की यह है असलियत.

दरअसल जीडीपी में छलांग लगाने का अर्थ है अमीरों का और अमीर होना, पूंजी का केन्द्रीयकरण तथा उसका कुछ ही लोगों की तिजोरी में बंद होना. यदि सरकार इसे ही उपलब्धि मानती है तो ठीक है लेकिन इसमें कोई शक नहीं है कि राज्य के आर्थिक संसाधनों का यदि कोई वर्ग बेतहाशा दोहन कर रहा हैं तो वह अभिजात्य वर्ग ही है.


इस वर्ग में वे नौकरशाह और राजनेता भी शामिल हैं, जो राज्य के विकास के लिए राजकोष से निकलने वाले धन में बटमारी करते हैं. राज्य के इन दस वर्षों में भ्रष्टाचार के ऐसे-ऐसे उदाहरण सामने आए हैं कि आंखें फट जाएं. ये वो घटनाएं हैं, जो पकड़ में आई हैं. जिनका पर्दाफाश नहीं हुआ, उस बारे में अनुमान लगाया जा सकता है.

बहरहाल तमाम कमियों, अभावों को छोड़ दें तो जीडीपी दर में वृद्धि उत्साहवर्द्धक तो है ही. लेकिन कुछ क्षेत्रों, खासकर औद्योगिक क्षेत्रों के विकास से काम नहीं चलेगा. सरकार को सबसे पहले गरीबों पर ध्यान देना चाहिए. इस बारे में दावे बड़े-बड़े किए जाते हैं किंतु सच्चाई ठीक विपरीत है.

केन्द्र एवं राज्य सरकार की योजनाओं के बावजूद गरीबी दूर होना तो दूर गरीब और गरीब होते जा रहे हैं. यह चिंता का विषय है. इससे साफ जाहिर है, सरकार ठीक से काम नहीं कर रही है जबकि योजना आयोग राज्य सरकार को धन देने में कमी नहीं करता. अभी हाल में उसने 13 हजार 230 करोड़ रुपए स्वीकृत किए हैं. यकीनन यह राशि कम नहीं होती.

बीते दस वर्षों में राज्य में धन का अथाह प्रवाह हुआ है. कहां गया यह पैसा? इतने पैसों में तो राज्य के 19 हजार 720 गांवों में से कुछ हजार की शक्ल तो बदल ही जानी चाहिए थी? लेकिन कितनों की बदली? राज्य के मुखिया हर साल गर्मी में हफ्ते-दस दिन के ग्राम सम्पर्क अभियान पर निकलते हैं. भरी दोपहरी में गांवों का दौरा करते हैं. ग्रामीणों से बातचीत करते हैं.

उनकी समस्याओं को देखने-समझने की कोशिश करते हैं. उनके दौरों के बाद सरकारी दफ्तरों में शिकायतों एवं आवेदनों का अंबार लग जाता है. सरकारी तौर पर ऐलान होता है कि समस्यायें निपटायी जा रही हैं, विकास कार्य शुरू हो गए हैं. तस्वीर बदल जाएगी. लेकिन हकीकत यह है कि तस्वीरें जस की तस हैं. उन पर धुंध छायी हुई है. फलत: किसी गांव की शक्ल उजली नहीं दिखती.

अगर बैठकों एवं सम्पर्क अभियानों से ही कष्ट दूर होता तो छत्तीसगढ़ के सभी गांवों में बहार आ जाती. वे पंजाब को मात देते, हरियाणा से आगे निकल जाते.


जरा गौर करें गांव की मोटी-मोटी आवश्यकताएं क्या हैं? कृषि के लिए पानी, बिजली, निस्तारी के लिए तालाब, स्वास्थ्य के लिए अस्पताल, पढ़ाई के लिए स्कूल, पीने के पानी के लिए सामान्य बंदोबस्त अर्थात नलकूप अथवा कुएं तथा गांवों का एक-दूसरे से सड़क सम्पर्क तथा इन सबका स्थायी बंदोबस्त. यानी गांव की मूलभूत आवश्यकताएं यदि पूर्ण हैं तो अभावग्रस्तता कायम नहीं रहनी चाहिए.


अभी दिक्कत यह है कि कुछ सौ गांवों में स्कूल भवन हैं तो शिक्षक नहीं, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र हैं तो दवाइयां और डॉक्टर नहीं. नलकूप हैं तो पानी नहीं, पेयजल की व्यवस्था है तो पानी शुद्ध नहीं, राशन दुकान है तो राशन नहीं या वे समय पर खुलती नहीं. यानी व्यवस्थाएं हैं पर व्यवस्थित संचालन नहीं. इन दस वर्षों में इसमें कोई सुधार हुआ हो, ऐसा नहीं लगता.

मुख्यमंत्री ग्राम सम्पर्क अभियान के बावजूद उन प्रवासी गांवों की भी स्थिति कोई खास नहीं बदली. अब तो ग्रामसभाओं की भी शुरूआत हो चुकी है. यानी प्रत्येक छोटे-बड़े गांव में ग्रामीणों की बैठक. बैठकों का वार्षिक कैलेंडर बन गया है. ग्रामीण बताएंगे अपना कष्ट तथा बैठक में उपस्थित सरकारी अधिकारी उन्हें दूर करेंगे. किंतु अगर बैठकों एवं सम्पर्क अभियानों से ही कष्ट दूर होता तो छत्तीसगढ़ के सभी गांवों में बहार आ जाती.

वे पंजाब को मात देते, हरियाणा से आगे निकल जाते. फिर छत्तीसगढ़ पिछड़ा नहीं कहलाता. पर ऐसा नहीं है. व्यवस्थागत दोषों एवं भ्रष्टाचार की वजह से मंजिल अभी कोसों दूर दिख रही है.अब कुल्हाड़ीघाट को ही लें. रायपुर जिले के मैनपुर विकासखंड का गांव. यहां कमार आदिवासी बसते हैं. समूचा छत्तीसगढ़ जानता है कि 25 बरस पूर्व 17 जुलाई 1985 को तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने अपनी पत्नी सोनिया गांधी के साथ इस गांव का दौरा किया था. ग्रामीणों से रूबरू हुए थे. उनकी बातें सुनी थी, हालातों का जायजा लिया था. उनकी वजह से कुल्हाड़ीघाट रातों रात प्राथमिकता की सूची में आ गया.

किंतु क्या हुआ? कमार अभी भी उसी अवस्था में जी रहे हैं. इस छोटे से आदिवासी गांव में विकास की कोई किरण नहीं पहुंची. खबरों के मुताबिक वहां अभी भी आदिवासियों के घासफूस के ही मकान हैं, सरकारी कार्यालय खुले भी तो कर्मचारियों के अभाव में उसमें ताले जड़े हुए हैं.
अस्पताल भवन अधूरा पड़ा है. नालों पर बनी पुलिया टूटी हुई है. बरसात के दिनों में गांव का टापू बनना तय है. कुल मिलाकर गांव अभी भी अभावग्रस्त हैं, जबकि आदिवासियों का विकास राज्य सरकार का संकल्प है.


राजीव गांधी प्रवास के इन ढाई दशकों में इस गांव ने कई सरकारें देखीं, कांग्रेस की भी और भाजपा की भी. राज्य के बस्तर एवं सरगुजा के आदिवासी गांवों के विकास के नाम पर बड़ी-बड़ी घोषणाएं हुईं, करोड़ों-अरबों खर्च हो गए लेकिन अन्य गांवों के साथ-साथ कुल्हाड़ीघाट में भी जिंदगी ठहरी हुई है. उसमें कोई गतिशीलता नहीं. गांव का प्राय: हर बाशिंदा भूखा, नंगा और प्यासा है.

इसी तरह बिलासपुर जिले के गांव रंजना एवं धमतरी जिले के गांव दुगली की भी यही स्थिति है. ये गांव राजीव गांधी के सपनों के गांव थे पर जब प्रदेश कांग्रेस के किसी भी नेता को उनके सपनों की परवाह नहीं है तो सत्तारूढ़ भाजपा को क्या पड़ी है कि वह इन गांवों में झांककर देखें. जाहिर है, विकास के सवाल पर राजनीति के शिकार ऐसे गांवों की संख्या भी राज्य में कम नहीं है.

दरअसल ग्रामीण विकास के मामले में सरकार हमेशा कटघरे में रही है. छत्तीसगढ़ ने मप्र में रहते कम से कम 9 पंचवर्षीय योजना देखीं. दस साल से तो वह स्वतंत्र है. यानी विकास के लिए केन्द्र से मिल रही राशि में किसी और की हिस्सेदारी नहीं.

इन दस वर्षों में यदि गांवों के विकास की एकीकृत योजनाएं ढंग से लागू की जातीं, वे भ्रष्टाचार से मुक्त होतीं, इनके क्रियान्वयन पर कड़ी निगरानी रखी जाती तो आज छत्तीसगढ़ के गांव भूखे-प्यासे नहीं रहते, सैंकड़ों औद्योगिकीकरण की बलि नहीं चढ़ते, नक्सलवाद को पनपने के लिए जगह नहीं मिलती तथा ग्रामीणों एवं आदिवासियों का सही मायनों में उत्थान होता.
यानी हर गांव में आबादी के हिसाब से नलकूप, कुएं, तालाब, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र, प्रायमरी से लेकर माध्यमिक या उच्चतर माध्यमिक स्कूल, सस्ते अनाज की दुकानें, कुटीर उद्योग, गांवों में ही रोजगार के अवसर तथा सड़कें न्यूनतम जरूरतों को पूरा कर देती. किंतु ऐसा नहीं हो पाया है इसीलिए मुख्यमंत्री के ग्राम सम्पर्क अभियान में सर्वाधिक शिकायतें इन मामूली आवश्यकताओं से संबंधित रहती हैं.

गांवों का चेहरा वही पुराना है जिस पर पड़ी सलवटें ग्रामीणों के दु:ख एवं विवशता को बयां करती हैं. जीडीपी की लंबी छलांग उनके अभावों को दूर नहीं कर रही है.



गांवों के विकास के संबंध में राजनीतिक चेतना एवं जनप्रतिनिधियों की जवाबदेही की बात करें तो स्थिति बिलकुल स्पष्ट है. गांवों में राजनीतिक जागरूकता पर संशय नहीं लेकिन जनप्रतिनिधि अपने दायित्वों के प्रति निश्चय ही गंभीर नहीं हैं. यदि गंभीर रहते तो गांवों का नक्शा कुछ बेहतर रहता. राजीव गांधी के गांव कुल्हाड़ीघाट, दुगली या रंजना को ही लें या उन गांवों की बात करें, जहां मुख्यमंत्री रमन सिंह बीते 7 वर्षों में हो आए हैं, क्या वहां आदर्श स्थितियां बन पायी हैं?

राज्य बनने के बाद अजीत जोगी तीन वर्षों तक प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे. क्या उनके कार्यकाल में राजीव गांधी के प्रवासी गांवों की दशा, जिसमें बस्तर के भी गांव शामिल हैं, बदल नहीं सकती थी? प्रदेश के कांग्रेसी जनप्रतिनिधि, सांसदों एवं विधायकों का दायित्व केवल राजीव गांधी की जयंती अथवा पुण्यतिथि मनाने तक सीमित है? जब वे राजीव गांधी को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं, तब उन्हें राजीव गांधी के छत्तीसगढ़ दौरे एवं उनके सपने याद नहीं आते? यह शर्मनाक है.

दरअसल समूचा विपक्ष सत्ता के सुर के साथ सुर मिला रहा है. जब विपक्ष निर्बल हो तो विकास के लिए दबाव की उम्मीद कैसे की जा सकती है? छत्तीसगढ़ में विकास के नाम पर आ रहे पैसे का बड़ा हिस्सा भ्रष्टाचार के गटर में जा रहा है. इसीलिए चाहे कुल्हाड़ीघाट हो या दुगली, गांवों का चेहरा वही पुराना है जिस पर पड़ी सलवटें ग्रामीणों के दु:ख एवं विवशता को बयां करती हैं. जीडीपी की लंबी छलांग उनके अभावों को दूर नहीं कर रही है.

यह तो गनीमत है कि छत्तीसगढ़ के ग्रामीण सरल, सौम्य एवं धैर्यवान हैं. रोटी के लिए संघर्ष से न तो थकते हैं न ही निराश होते हैं. इसलिए तमाम तरह के अभाव एवं ऋणग्रस्तता के बावजूद कभी यह सुनने नहीं मिलता कि किसी किसान ने फसल चौपट होने पर आत्महत्या की हो. लेकिन उनके धैर्य एवं साहस का यह मतलब नहीं है कि उन्हें अभावों में ही जीने दिया जाए. राज्य सरकार ग्रामीण विकास के मॉडल पर भले ही अपनी पीठ थपथपाती रहे किंतु यह नहीं भूलना चाहिए कि गांवों में असंतोष के जो छोटे-बड़े ज्वालामुखी तैयार हो रहे हैं, वे कभी भी फट सकते हैं.

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