मंगलवार, 20 मार्च 2012

विस्थापितों के साथ धोखा हुआ है


अचानकमार टाइगर रिजर्व में बाघों को बचाने के नाम पर वहां सैकड़ों सालों से रहने वाले बैगा आदिवासियों को हटाया जा रहा है. आदिवासियों को हटाने के नाम पर पिछले 2 सालों में तमाम नियम कायदे और कानून को ताक पर रख कर वन विभाग का जो जंगल राज चल रहा है, उसने इन बैगा आदिवासियों के सामने जीवन-मरन का प्रश्न पैदा कर दिया है. पुनर्वास के नाम पर वन विभाग ने बैगा आदिवासियों की जिंदगी जानवरों-सी कर दी है.इस पूरे मामले पर सुनील शर्मा
ने एक लंबी रिपोर्ट लिखी है जो पहले ही दो किस्तों में छप चुकी है...पेश है तीसरी किस्त... 

वन विभाग के अफसर ही क्यों, विभाग के मंत्री भी यहां का दौरा कर चुके हैं और उन्हें विस्थापन की तारीफ करते हुए इसे देश का सबसे अच्छा विस्थापन बताया था लेकिन जल्दा के चमरू का तो कुछ और ही कहना है-'' उसेंडी सर जब आये थे तो उन्होंने अधूरे काम पूरे कराने का वादा किया था लेकिन आज तक गांव में स्कूल भवन, अस्पताल, आंगनबाड़ी केंद्र नहीं बना. उन्होंने हल के लिए भैंसा देने की बात कहीं थी. भैसा की जगह पड़वा दिया गया, जो हल खींचने के योग्य नहीं था और उसमें से एक पड़वा तो कुछ ही दिनों बाद मर भी गया. तीन हजार में जमीन की ट्रेक्टर से जुताई करवाई पर अनाज भी उतना नहीं हुआ कि उसे परिवार का एक सदस्य भी साल भर खा सके. हमारे साथ धोखा हुआ है.''

इस गांव में समस्याओं का अंबार लगा है. इतवारी कुछ समझदारी की बातें करते हैं. वे कहते हैं-'' वैसे तो यहां कई परेशानियां है लेकिन अगर कोई दूर ही नहीं करना चाहे तो वह कैसे दूर होगी.” 

वन विभाग के अफसरों की पोल खोलते हुए वे कहते हैं कि यहां आरक्षित भूमि को खेती की जमीन बताकर ग्रामीणों को दिया गया है और खेत क्या वह जमीन के कुछ टुकड़े हैं जिसमें पेड़ और पत्थर है. गांव के सभी 74 परिवारों को भैसा जोड़ी मिलना था लेकिन 24  को आज तक नहीं मिला, जिन्हें मिला उन्हें भैंसा की जगह पड़वा दिया जिनमें से कइयों की मौत हो चुकी हैं. विस्थापितों ने मामले की शिकायत एसपी से की है लेकिन अभी तक कोई कार्रवाई नहीं हुई है.

 गांव के मुखिया मरहूराम बताते हैं-''हमारे इलाके के रेंजर वर्मा जी को सब मालूम हैं. हमें तो ठगा गया है. भला दस लाख रुपए जैसा हुआ क्या है.'' वह बोलते-बोलते भावुक हो जाते हैं- ''हम अपने पुराने गांव से अपना देवी-देवता भी तो नहीं ला पाये हैं, उनका आशीर्वाद अब हमारे साथ नहीं है...शायद यही कारण है कि हमें ये दिन देखने पड़ रहे हैं. हमारे पास अब न हमारे देवता है और न पूजा स्थल है. देवताओं का प्रकोप हमें चैन से रहने नहीं दे रहा है.''

तीन में न तेरह में
राजीव गांधी जलाशय (खुड़िया) जाने वाले मार्ग पर दायीं तरफ कारी डोंगरी के ठीक पहले कभी जंगल हुआ करता था. यहां के पंद्रह हजार से भी अधिक पेड़ों को काटकर अचानकमार बाघ परियोजना से विस्थापित किये गये तीन गांवों बांकल, बोकराकछार और सांभरधसान को बसाया गया. 

विस्थापन के दो साल बाद भी ग्रामीण यहां खुद को नया महसूस करते हैं. इलाके के पुराने वाशिंदे उन्हें तवज्जो भी नहीं देते, उल्टा वे मानते हैं कि इन नये आगंतुकों के कारण उनके ग्राम पंचायत को मिलने वाली सुविधायें अब बांटनी पड़ रही है. संकट ये भी है कि इन आदिवासियों की बोली और रहन-सहन इन गांव वालों से बिल्कुल अलग है. 

सांभरधसान में 17 परिवार हैं. यहां के सेवाराम बैगा को भी पांच एकड़ जमीन कृषि भूमि बताकर दी गई है. पर वे बताते हैं -''मेरी क्या इस गांव में किसी की जमीन भी समतल नहीं है. उबड़-खाबड़ है, बीच में बड़े-बड़े पेड़ है और जमीन ऐसी है कि कितनी भी बारिश हो, पानी नहीं रूकता. ऐसे में फसल की अच्छी पैदावार होने का तो सवाल ही नहीं है. धान का पौधा सही रूप से विकसित नहीं हो पाता.''

बांकल के तीस परिवारों को विस्थापित किया जाना था लेकिन वहां 29 परिवारों को ही बसाया गया है. एक भवन जो कि हितग्राही को दिया जाना था, वहां वर्तमान में स्कूल संचालित है. इस गांव में भी सिंचाई, स्कूल भवन, स्वास्थ्य केंद्र, आंगनबाड़ी, बिजली जैसी अन्य सुविधाएं नहीं हैं. आदिवासी परेशान हैं और अपने पुराने गांव को छोड़कर नई जगह पर विस्थापित होने का दर्द उनके चेहरे पर स्पष्ट दिखाई देता है.

बांकल की सुंदरिया सत्तर साल की हैं और उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि उन्हें इस बुढ़ापे में एक नई जगह पर आकर रहना होगा. लड़खड़ाती जुबान से वह कहती हैं-'' बने ता हावन साहब फेर इहा मन नइ लागय. कई झन तो इहा ले कमाय-खाय बर दिल्ली-आगरा कोती जावत हे त कई झन घलो जाये के सोचथे...मोर तो बुध सिरा गये हे...सरकारो ह तो घलो जेन कहे रहिसे ओला पूरा नई करिच...खेत म पथरा हे, रूख-राई हे, धान उपजय नहीं त काला खाबो...अइसन में का करी कुछ बुता-काम तो घलो नइ हे इहा.''  अपने जवाब में अनपढ़ सुंदरिया खुद ही कई सवाल खड़े करती हैं. पर उनके सवाल पेड़-पौधों से टकराकर वापस आ जाते हैं. 

बांकल में बैगा परिवारों के साथ गोड़ आदिवासी भी विस्थापित किये गये हैं. इन्हीं में से एक परिवार हैं रमेश का. रमेश को पिछले साल 25 बोरी धान यानी सात क्विंटल धान मिला था जिसकी कीमत पांच हजार छह सौ रुपए थी और पांच हजार रुपए खेती में खर्च हो गये. इस तरह जी-जान से परिवार सहित खेती करने के एवज में उन्हें मिले महज छह सौ रुपए...वह इसका क्या करें. इस साल भी खेती का बुरा हाल है. रमेश बताते हैं-''इस बार तो पिछली बार से भी कम धान होगा.'' रमेश के पास बीपीएल का कार्ड भी नहीं है, लिहाजा 35 किलो चावल भी नहीं मिलते. उन्हें समझ में नहीं आ रहा है कि बाल-बच्चों को वे क्या खिलाएंगे ?

जीवन में पहली बार पलायन 
बांकल में भी जल्दा, बहाउड़, सांभरधसान, कूबा और बोकराकछार की तरह ही रोजगार की समस्या है. जिसके परिणामस्वरूप पलायन जैसी समस्या सामने आ रही है. यह पहला अवसर है, जब इस गांव के आदिवासी दिल्ली और आगरा जैसे शहरों में कमाने-खाने के लिए गये हैं. छत्तीसगढ़ में पलायन की समस्या कोई नई नहीं है लेकिन यह वन्यक्षेत्रों में रहने वाले आदिवासियों के लिए एकदम नया है.

मानसिंह के साथ पूरा गांव ही बेरोजगारी की समस्या से जूझ रहा हैं.मानसिंह बताते हैं कि-''अच्छी बारिश होने के बाद भी इस साल अनाज पिछले साल की तुलना में कम मिला. कारण है खेती की जमीन का सही न होना. हमारे सामने बेरोजगारी की समस्या है. अगर हम काम नहीं करेंगे तो हमारे बच्चे भूखों मर जायेंगे.''
गांव के अन्य ग्रामीणों की तरह वे भी मजदूरी करने आगरा या दिल्ली जाना चाहते हैं ताकि वे अपने परिवार का पालन-पोषण कर सकें. गांव के पंद्रह से अधिक लोग दिल्ली-आगरा कमाने-खाने चले गये हैं और कई दूसरे लोग भी जाने की इच्छा रखते हैं. इस गांव की सूनी गलियां और घरों में लगे ताले मानसिंह की बातों की गवाही देते हैं.
रमेश बताते हैं कि बांकल के 29 परिवार से 14 लोग पलायन कर चुके हैं.दरवाजा के एक ठेकेदार के द्वारा अच्छी मजदूरी दिलाने का वायदा करने के बाद रामकुमार, रामनाथ, रामप्रसाद, रामस्वरूप, समलिया, शिवकुमार, शिवचरण, हीरा ,शिवप्रसाद,  अररूत, मालिकराम, अशोक और लमतू आगरा और दिल्ली चले गये हैं.सांभरधसान का श्यामलाल भी उनके साथ गया हैं. ये सभी बैगा हैं. इन्हें गये एक महीना हो गया है.
जहां एक ओर बांकल और सांभरधसान के बैगा आदिवासी आगरा और दिल्ली जैसे शहरों में विस्थापन से उभरी पीड़ा के बाद पलायन का दुख झेल रहे हैं, वहीं बोकराकछार के आदिवासी पहाड़ियों पर बांस काटते हुए परिवार के लिए रोजी-रोटी का इंतजाम कर रहे हैं. कभी-कभी तो वे अपने परिवार से पंद्रह-बीस दिन भी अलग रहते हैं और इस बीच घर की सारी जिम्मेदारी महिलाओं के जिम्में होती है.

बोकराकछार के आदिवासियों को बांस कटाई के दौरान जंगल में ही झोपड़ियां बनाकर रहना होता हैं और दिल्ली-आगरा पलायन करने वालों को भी रातें झुग्गियों में काटनी पड़ रही हैं. ऐसे में कथित रूप से उनके लिए तीन लाख तैंतीस हजार रुपए की लागत से बनाये गये पक्के मकान का क्या औचित्य है. उनके हिस्से तो अभी भी झोपड़ियां ही हैं. 

आदिवासियों की विवशता भरे जीवन में विस्थापन के बाद उभरी पलायन की पीड़ा एकदम नई है और ये उनके उपर थोपी गई है. ये दुख उनके हिस्से नहीं था पर अब वे इस परेशानी से दो-चार हो रहे हैं. बोकराकछार के बसोर बैगा अपना परिवार छोड़कर दिल्ली-आगरा नहीं जाना चाहते क्योंकि उन्हें डर हैं कि कहीं वहां वे भूखों न मर जाये.
वे कहते हैं-''यहां वे किसी तरह रोजी-मजदूरी करके अपना जीवन काट लेंगे लेकिन वहां गये और काम नहीं मिला तो वहां से वह लौट भी नहीं पायेंगे, क्योंकि पढ़-लिखे तो हैं नहीं.साहब दोगुना मजदूरी मिलेगा कहकर ठेकेदार यहां से ले जा रहा है लेकिन यदि नहीं मिला तो हम तो वहां बेमौत मर जायेंगे.''

हालांकि बसोर इस बात को भी स्वीकारते हैं कि यहां भी वे सुखी नहीं रह सकते, क्योंकि खेतों में धान की जगह मायूसी उपज रही है. वे कहते हैं-'' पांच एकड़ में धान की बोनी किया और बीजहा भी वापस नहीं हो रहा है तो ऐसे में तो भूखों मरना ही है. वन विभाग के अफसरों ने कहा था कि वे पांच साल तक उनका ख्याल रखेंगे. उनके बच्चों के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य का इंतजाम करेंगे लेकिन वे तो आते तक नहीं. उन्होंने हमें छोड़ दिया.'' 

राजीव गांधी जलाशय के पास खुड़िया ग्राम से दो किलोमीटर दूर सुरही जाने वाले मार्ग पर बसाये गये बहाउड़ का हाल तो इन गांवों से भी बुरा है. यहां 66 परिवारों को बसाया गया है. जंगलों के बीच बना इनका आशियाना जितना खूबसूरत दिखाई देता है, वैसा अंदर से है नहीं.

दुखीराम अपने नाम की तरह ही यहां दुखी है और उनकी उम्मीदों पर पूरी तरह से पानी तब फिर गया जब पांच एकड़ की जमीन में से केवल दो एकड़ में ही वे कृषि कार्य कर पाये और शेष में पैरा भी नहीं हुआ. 
ठुकुर बैगा इस गांव के बुर्जुग है और लोग उनकी बड़ी इज्जत करते हैं. उन्होंने अपने जीवन में कई कष्ट झेले हैं और अब उनकी भी हिम्मत उम्र के साथ ही जवाब दे रही है. वे बहाउड़ के साथ ही बोकराकछार, बांकल, सांभरधसान, कूबा और जल्दा के ग्रामीणों के संपर्क में हैं और कभी-कभार वहां आते-जाते रहते हैं. वे आदिवासियों के पलायन को दुखद बताते हैं.

वे कहते हैं-''साहब सत्तर साल की उम्र हो गई, कभी हम बाहर कमाने-खाने नहीं गये. अब हमारे ही बिरादरी के लोग बाहर जा रहे हैं. दोगुना मजदूरी मिलेगा कहकर कोई बाल-बच्चों के साथ तो कोई यहां छोड़कर पलायन कर रहे हैं. यह अच्छी बात नहीं है. यह हमारे लिए एकदम नया है और यह अच्छा संकेत नहीं है.

हमारे बुजुर्ग कहते थे कि कभी अपनी मिट्टी को छोड़कर किसी के बहकावे में कभी मत जाना, भले ही वहां सोना-चांदी ही क्यों न मिले लेकिन आजकल के बच्चों को कौन समझाये और उन्हें समझाए भी तो कैसे ? समझाने पर वे उल्टे पूछते हैं-हमारा परिवार पालोगे...क्या करें जुबान बंद हो जाती है...पता नहीं बहाउड़ वाले कब तक उनकी बात सुनते हैं...उसके बाद तो बूढ़ादेव ही जाने क्या होगा ?”

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