रविवार, 24 अक्तूबर 2010

कब मिलेगी मैला उठाने से मुक्ति... ?

सुनील शर्मा

देश में अभी-अभी सबसे खर्चीला कामन वेल्थ हुआ है।

अगले साल वर्ल्ड कप
भी होगा.

मेरे देश में राम, कृष्ण, विवेकानंद और गांधी भी पैदा हुए और राहुल गांधी भी मेरे ही देश के युवाओं के आइकान है.

मेरे
देश में गंगा, जमुना, सरस्वती की तथाकथित अविरल धारा बहती है. कश्मीर से कन्याकुमारी तक हर साल लाखों विदेशी सैलानियों का हुजूम देश की परंपरा, संस्कृति और सभ्यता की झलक पाने के लिए उमड़ता है. मेरे देश में पक्षी से लेकर पेड़ और इंसान से लेकर भगवान सभी पूजनीय है. कुल मिलाकर इतना सब कहने का मतलब है कि मेरा देश महान है! पर भारत से इंडिया बन चुके मेरे इस देश के उत्तरप्रदेश में ही केवल तीन लाख भाई-बहन ऐसे भी है जो अपने सिर पर मैला ढोते है.

अब है न दुखद बात. पर इससे भी दुखद है इस बुराई को मिटाने के लिए केंद्र और राज्य सरकार द्वारा संचालित तमाम योजनाओं का जो चली तो मेट्रो ट्रेनों की तरह पर पूरा होने से पहले ही फ्लाप हो गई. हैरत की बात तो यह भी है कि जिस देश की सरकार 74 हजार करोड़ रुपए कामन वेल्थ गेम में खर्च करती है और 40 करोड़ का एक गुब्बारा खरीदकर खुद को गौरान्वित महसूस करती है, वहीं सरकार आज तक मैला ढोने वालो को उनकी त्रासदी से निजात नहीं दिला सकी है.

ढेरों वित्तपोषित योजनाएं भरा-भराकर जमीन पर मुंह के बल उल्टे गिर गई लेकिन यह सामाजिक कुप्रथा वर्षों से अंगद की पैर की तरह समाज में गड़ा हुआ है.
पर मैं ऐसा बिल्कुल नहीं कह रहा हूं कि मेरे देश की सरकार ने मैला ढोने की कुप्रथा से मेरे इन भाई-बहनों को निजात दिलाने के लिए कुछ नहीं किया. अरे खर्च किया न वहीं कोई 10 अरब रुपए. अब आप सोचेंगे कि ये ज्यादा हो गया, नहीं मेरे देश की कुछ और खासियत तो मैं आपको बता ही नहीं पाया. यहां चपरासी से लेकर साहब, नेता और मंत्री तक सभी लेते हैं, नहीं समझे ? अरे ! तो रात में लेते हैं, पर मैं जिस लेने की बात कह रहा हूं उसे घूस, रिश्वत, कमीशन, व्यवहार, मिठाई, दिवाली का पटाखा, आदि-आदि नामों से जाना जाता है.

ये दस अरब रुपए कहा गये पता ही नहीं चला. मेरे देश की ब्यूरोक्रेसी से भी पूरे विश्व को यहां तक की अमरीका को सीखना चाहिये. मेरे देश में यदि अफसर मंत्री से मार खा जाये तो वह पूरे देश के साथी अफसरों को मैला ढोने वालों की आड़ में योजनाओं के चलते न जाने कितने हजार अधिकारी-कर्मचारी फलते-फुलते रहे लेकिन मेरे भाई-बहन आज भी उन्हीं आर्थिक और सामाजिक समस्याओं से ग्रस्त और त्रस्त है. वह तबका आज भी वैसा ही जैसा पहले था. भले ही मैला ढोना अपराध हो लेकिन यह बदस्तूर जारी है. वह चाहे लखनउ हो या शाहजहांपुर और फिर चाहे देश का कोई भी इलाका.

मेरा उद्देश्य आप लोगों को मेरे इन शोषित और पीडि़त भाई-बहनों के बारे में और अधिक बताकर दुखी करने का नहीं है बल्कि मैं तो सुबह से एक खबर को लेकर सोच रहा हूं.
एक अखबार के हवाले से छपी खबर के मुताबिक देश में हाथ से मैला उठाए जाने को शर्मनाक परंपरा बताते हुए एनएसी यानी राष्ट्रीय परिषद ने शनिवार को सरकार को कहा है कि इस परंपरा को 2012 के अंत तक पूर्ण रूप से समाप्त किया जाए. परिषद ने यह भी कहा है कि इस परंपरा को साफ-सफाई से जोडक़र देखा जाता है जबकि इसे मानवीय गरिमा के अनुरूप देखे जाने की आवश्यकता है.

मैला उठाने वाले कर्मियों की नियुक्ति करने या कराने वालों को दंडित किये जाने का प्रावधान होने के बाद भी अभी तक किसी भी मामले में किसी को भी दंडित नहीं किया जाना दुखद है.
हुआ यह है कि हाल ही में राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की बैठक हुई जिसमें इस मुद्दे पर गंभीरतापूर्वक विचार किया गया. यह तय किया गया कि 11 वीं पंचवर्षीय योजना के अंत तक सभी राज्य सरकारों, रेलवे सहित केंद्र सरकार के विभागों के साथ समन्वय स्थापित कर इसे पूरी तरह समाप्त कर दिया जाना चाहिये. बैठक में महिलाओं के साथ बच्चों के द्वारा भी मैला उठाए जाने पर चिंता जताई गई.

हालांकि राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की इस सलाह पर केंद्र सरकार का कोई बयान नहीं आया है पर मुझे लगता है कि मेरे उन लाखों भाई-बहनों के लिए राहत के द्वारा खुल सकते है. या हो सकता है कि यह एक छलावा भी हो, क्योंकि पहले भी इन निचले तबकों वालों के साथ धोखा हो चुका है.
अब देखिये न समाज कल्याण विभाग के पास सफाई कर्मचारी आयोग के साथ ही तीन अन्य आयोग भी है लेकिन इस आयोग की ही अनदेखी की जा रही है. शुरू में आयोग के गठन के समय 11 करोड़ की योजना बनाई गई थी और 300 करोड़ पुर्नवास और 125 करोड़ कल्याण कार्यक्रमों पर खर्च करने की बात कही गई थी. पर भ्रष्टाचार की छाया यहां भला कैसे न पड़ती. उत्तरप्रदेश के कार्यालय में ही अकेले दो अरब की गड़बड़ी का खुलासा हुआ. चाहे वह उत्तरप्रदेश हो, बिहार हो, छत्तीसगढ़ हो या फिर देश के अन्य राज्य सभी जगह सफाई कर्मचारियों की हालत खराब है।

शुष्क शौचालय का निर्माण अपराध की श्रेणी में आता है लेकिन 42 साल बाद कानून बनाकर इस कृत्य को अपराध घोषित करने वाली सरकार ने एक भी मामले में किसी को दंडित नहीं किया. मलकानी समिति, बीएस बंटी समिति ने इनके विकास की दिशा में और इन्हें समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए कई सिफारिशे की लेकिन सब बेकार हुई.

उनका हक उन्हें आज तक नहीं मिला. समाज की गंदगी को साफ करने वाला यह तबका स्वयं ही सरकारी की दिमागी गंदगी का शिकार है. समाज तो आज भी इन्हें घृणा की दृष्टि से देखता है सरकार भी उन्हें विकास की मुख्यधारा में लाने की मंशा रखती है, ऐसा अब तक तो एक बार भी नहीं लगा.
आजादी के बाद भी सफाईकर्मियों को उनकी कुपरंपरा से मुक्ति दिलाने के लिए सरकारी नाटक जारी है।

देखना होगा कि सरकार राष्ट्रीय सलाहकार समिति की सलाह पर अमल करते हुए काम करती है या फिर आगे भी सरकारी स्वांग जारी रखती है.

1 टिप्पणी:

  1. सदियों से चली आ रही प्रथा धीरे धीरे ही सही पर ख़तम तो हो रही है.
    पहले तो मैनुअल तरीके से करते थे, मैंने अपने बचपन में देखा है.
    संपूर्ण परिवर्तन आएगा ही.

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