रविवार, 26 सितंबर 2010

ढेला, कचरा, घुरवा और न जाने क्या-क्या !



सुनील शर्मा

उनकी आंखों में अजीब सा दर्द झलकता है. ऐसा अक्सर तब होता है, जब उन्हें कोई उनका नाम लेकर पुकारता है. एक ओर जहां अधिकांश लोग अपने बच्चों का नामकरण देवी-देवताओं, महापुरुषों तथा अन्य ख्यातिलब्ध हस्तियों के नाम पर करते हैं, वहीं अंधविश्वास की जड़े गांवों में इस हद तक जमी हुई है कि लोग अपनी संतानों की रक्षा के लिए उनका बुरा से बुरा नाम रखने से भी नहीं कतराते. हालांकि इनमें उनका दोष नहीं है.


प्रदेश सहित जिले में आज भी ऐसी परंपराये मौजूद है जिनके कारण लोग अपने बच्चों का नाम घुरवा, कचरा, ढेला आदि रखते हैं. बच्चे जब बड़े हो जाते हैं तो उन्हें अपने ही नाम के कारण शर्मिंदा होना पड़ता है. इन्हीं नामों की
वजह से वे न चाहते हुए भी हीनभावना का शिकार हो जाते हैं.

जब तक वे अपने नाम का अर्थ जानने लायक होते हैं, उनका नाम चलन में आ गया होता है. और वे न अपना नाम बदल पाते हैं और न ही बदलवा पाते हैं. ऐसे मामले ज्यादातर लड़कियों से जुड़े होते हैं, क्योंकि आज भी ग्रामीण समाज लड़कियों को हीन भावना से देखता है. घुरवा, कचरा, ढेला, बिटावन, मेलन, फेकन सहित कई ऐसे नाम लड़कियों के ही होते हैं.

नाम के कारण उन्हें जीवन
भर प्रताडि़त होना पड़ता है. बचपन से ही जहां उनका मजाक उड़ाया जाता है, वहीं जब वे बड़ी होती है तो इसी नाम के साथ उनकी पहचान जुड़ चुकी होती है. स्कूल के रजिस्टर से लेकर राशन कार्ड और मतदाता परिचय पत्र में भी यहीं नाम चलता है.

छत्तीसगढ़ के ग्रामीण या शहरी समाज में किसी भी जाति द्वारा आज भी शादी के बाद लड़कियों का नाम नहीं बदला जाता. यदि छत्तीसगढ़ में ऐसा होता कि लडक़ी का नाम शादी के बाद उसके ससुराल में बदल दिया जाता जैसे कि महाराष्ट्रीयन परिवारों में आमतौर पर देखने को मिलता है, तो शायद ऐसे नामों वाली लड़कियों को कुछ राहत जरूर मिलती.

ऐसे ही नाम वाली महिलाओं से जब चर्चा की गई तो उनका कहना था कि कई बार जब लोग उनका नाम पुकारते हैं तो लगता है कि
वे उन्हें गाली दे रहे हैं. अब ऐसा क्यों उन्हें लगता है, वे खुद नहीं जानती, लेकिन उन्हें दुख पहुंचता है. अपनो के द्वारा दिये दर्द को वे बार-बार बयान भी तो नहीं कर सकती. कई बार नाम को लेकर उनका झगड़ा भी अपनी सहेलियों या पड़ोसियों से हो जाता है.

भले ही देश और प्रदेश को विकास की राह में अग्रसर बताया जा रहा हो लेकिन यह दुखद ही है कि आज भी ऐसे नाम रखने का सिलसिला गांवों में बदस्तूर जारी है. इ
सकार प्रमाण प्राइमरी स्कूलों के हाजिरी रजिस्टरों में मिल जायेगा. ग्रामीण क्षेत्र मेंहर स्कूल में ऐसे तिरस्कृत नाम दर्जनों की संख्या में है. महिला एवं बाल विकास विभाग महिलाओं और बच्चों के विकास की बात करता है लेकिन ऐसे नामों के चलते महिलाओं को होने वाली पीड़ा का उन्हें अंदाजा भी नहीं है.

ग्रामीण क्षेत्रों में घुरवा और कचरा जैसे नामों का रखा जाना यह बताता है कि आज भी गांवों से शिक्षा कितनी दूर है. ग्रामीण आज भी अशिक्षा और अंधविश्वास की मजबूत जड़ में जकड़े हुये है. उन्हें इनसे निकाल पाना कठिन है.

जिन्हें जरा भी गांवों
के बारे में जानकारी है, वे ऐसे नाम वाले एक-दो को तो जानते ही होंगे. आज भी ऐसे नाम रखे जाते हैं. पाठकों की तसल्ली के लिए पेश है कुछ उदाहरण.

लोरमी ब्लाक के प्राइमरी स्कूल देवरहट में तितरा सूर्यवंशी पिता पुन्नूलाल, प्राइमरी स्कूल बोईरपारा में कक्षा पांचवीं में पढऩे वाली महेतरीन पिता लतेल केंवट, ठगिया पिता राधे कश्यप, प्राइमरी स्कूल सिलपहरी में नकछेद, मेलन साहू पहली, प्राइमरी स्कूल नहरीभाठा में दुखु राम, ढेलगू सूर्यवंशी सहित लगभग हर गांव के हर स्कूल में ऐसे दर्जनों नाम मिल जायेंगे.

चिढ़ाते हैं मेरा नाम ले
कर

बिलासपुर रतनपुर मार्ग पर कछार नामक गांव में रहने वाली 8 वर्षीय लडक़ी ढेला कहती है कि उसकी सहेलियां उसके नाम को लेकर उसे चिढ़ाती है. गतौरी के विद्यामंदिर में पढऩे वाली कचरा बाई सूर्यवंशी कहती है कि उसे अपने नाम को लेकर बहुत दुख लगता है.

होना पड़ता है शर्मिंदा

केवल बच्चों को खराब लगता है, जो बड़े हो चुके हैं, उन्हें भी अपने इस तरह का नाम होने के कारण खराब लगता है और शर्मिंदा होना पड़ता है. अब कछार की कचराबाई साहू और सेंदरी की कचरा बाई सूर्यवंशी को ही ले. दोनों आंगनबाड़ी कार्यकर्ता है. विभागीय बैठक में जब उन्हें अधिकारी कचरा कहकर पुकारता है तो अन्य कार्यकर्ता उनकी ओर देखने लगते हैं और वे हंसने लगती है.

नहीं बदल पाई नाम

कोनी निवासी घुरवा ने सात साल की उम्र में नाम बदलने का प्रयास किया. उसने घरवालों और लोगों से कहा कि उसे सरोजनी कहकर पुकारे लेकिन लोगों ने उसकी एक न सुनी और आज भी लोग उसे घुरवा कहकर पुकारते हैं. आज भले ही उसकी शादी हो चुकी है और वह अपने परिवार के साथ खुश है लेकिन उसे इस बात का अफसोस है कि वह अपना नाम नहीं बदल सकी. कुछ ऐसी ही कहानी टेकर व कछार की कचरा बाई और घुरवा बाई का भी है.

बदल सकते हैं नाम

दुर्ग जिले के शिक्षाधिकारी बीएल कुर्रे कहते हैं कि सामाजिक रीति-रिवाजों में जकड़े होने के कारण यह अब भी चलन में है. बच्चे बड़े होकर बोर्ड परीक्षा होने के पहले अपना नाम बदल सकते हैं. हमारे पास शासन की ओर से यह आदेश नहीं है कि हम स्कूलों में शिक्षकों को यह कहे कि वे एडमिशन के समय बच्चों का अच्छा नाम दर्ज करें. जो मां-बाप कहते हैं वहीं नाम बच्चों का लिखा जाता है.

बिल्कुल न मिले बढ़ावा

छत्तीसगढ़ अंध श्रद्धा निर्मूलन समिति के अध्यक्ष डा.दिनेश मिश्र कहते है कि ऐसा अंधविश्वास के कारण होता है. नवजात शिशु को मौत से बचाने और लोगों को बुरी नजर से दूर रखने के लिए ऐसे उपेक्षित नाम रखे जाते हैं, जिन्हें कोई पसंद नहीं करता. हालांकि पहले की अपेक्षा अब लोगों में इसे लेकर जागरूकता आयी है. पहले गांवों में साफ-सफाई न होने के कारण बीमारियां होती थी और नवजात शिशु की मौत हो जाती थी. ऐसा एक-दो बार होने के बाद लोग इस तरह का नाम रखकर एक तरह से शिशु की मौत की रक्षा करने का प्रयास करते थे. हालांकि यह तर्कहीन और अंधविश्वासपूर्ण कार्य है जिसे बढ़ावा नहीं दिया जाना चाहिये.

अभी भी है अंधविश्वास

मनोवैज्ञानिक डा. पीके तिवारी का मानना है कि ये एक तरह का टोटका है, नींबू-मिर्च से बड़ा अंधविश्वास है. अशिक्षा व दूरदर्शी सोच नहीं होने के कारण अक्सर ग्रामीण ऐसा नाम रखते हैं. सुंदर बच्चे को किसी की बुरी नजर से बचाने और शिशुओं की लगातार मृत्यु के बाद ऐसे नाम रखने का चलन गांवों में आज भी देखने को मिलता है. हालांकि इस तरह के कार्य कोई ठोस आधार नहीं है. एक परिवार जब ऐसा करता है तो दूसरे परिवार पर इसका मनोवैज्ञानिक असर पड़ता है.



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें