शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

वेदांता, गोदावरी और विश्वसनीय छत्तीसगढ़


दिवाकर मुक्तिबोध, रायपुर से



22 सितम्बर की दो खबरें गंभीर एवं उद्वेलित करने वाली हैं. पहली खबर है वेदांता चिमनी हादसे में मृत श्रमिकों के आश्रितों को अब तक नौकरी नहीं मिली जबकि राज्य की सबसे बड़ी औद्योगिक दुर्घटना में 41 से अधिक मजदूर मारे गए थे. इस दुर्घटना को 23 सितम्बर 2010 को एक वर्ष पूर्ण हो गए.



इस खबर के बाद विचलित करने वाली दूसरी खबर है. गोदावरी पावर एवं इस्पात संयंत्र में घटित दुर्घटना के लिए प्रबंधक को दोषी मानते हुए रायपुर के श्रम न्यायालय ने दो मामलों में उन्हें तीन-तीन महीने की सजा सुनाई. यह दुर्घटना दो वर्ष पूर्व 12 जनवरी 2008 को घटित हुई थी.


जिसमें 8 श्रमिक मारे गए थे. उस दिन संयंत्र में कार्यरत श्रमिकों के उपर गर्म राख का पहाड़ गिर पड़ा, जिसकी चपेट में 8 श्रमिक आए और जाहिर है, वे भस्म हो गए. इन बड़ी औद्योगिक दुर्घटनाओं का अंतत: नतीजा क्या निकला?

कोरबा चिमनी हादसे में तो अभी फैसला आना बाकी है लेकिन गोदावरी पावर एवं इस्पात संयंत्र में घटित दुर्घटना के लिए सिर्फ तीन महीने की सजा और वह भी ढाल की तरह इस्तेमाल किए गए नौकर को? 8 श्रमिकों की जान गई और दंड इतना कम? क्या यही है विश्वसनीय छत्तीसगढ़? तेजी से औद्योगिक प्रगति करता छत्तीसगढ़ जहां श्रमिकों के खून से कथित औद्योगिक बुलंदियों की इबारत लिखी जा रही है? कहां हैं राज्य सरकार, कहां हैं प्रशासन? कहां हैं श्रमिकों के रहनुमा श्रमिक नेता और उनके संगठन?

दसवीं वर्षगांठ मनाने जा रहे राज्य के औद्योगिक इतिहास में इससे बड़ी विद्रूपता और क्या होगी कि कोरबा चिमनी हादसे के लिए आरोपित चीनी अधिकारियों की न्यायालय में जमानत मजदूरों ने ली और ऐसे मजदूरों ने जो गरीब हैं, बेहद गरीब. क्या छत्तीसगढ़ इसी तौर-तरीके से आगे बढ़ेगा? क्या ऐसा राज्य बनेगा जहां केवल कुछ हजार पूंजीपतियों का साम्राज्य होगा तथा गरीब और गरीब होता जाएगा. लक्षण तो कुछ ऐसे ही नजर आ रहे हैं. दोनों खबरें इसीलिए संवेदनशील जमात के लिए व्याकुल करने वाली हैं.

दरअसल 1 नवम्बर 2000 को नए राज्य के रूप में अस्तित्व में आने के बाद राज्य के नीति निर्धारकों ने कल्पना की जो उड़ानें भरीं वे जमीनी हकीकत से काफी दूर थीं. हर क्षेत्र में सीधे आसमान को छूने की ललक ने प्रगति के साथ विसंगतियों का भी अम्बार खड़ा कर दिया जिसका दुष्परिणाम अनेक रूपों में सामने आ रहा है लेकिन उनकी और दुर्लक्ष्य करके ढिंढोरा केवल विकास का पीटा जाता है.



भाजपा शासन के इन 7 वर्षों में यदि उद्योग के क्षेत्र में जबर्दस्त प्रगति हुई है और इस्पात बनाने वाली 20 कम्पनियों ने छत्तीसगढ में 427.61 अरब रुपए के निवेश के लिए राज्य सरकार के साथ सहमति पत्र पर हस्ताक्षर किए हैं तो श्रमिकों का कितना भला हुआ है? क्या बेरोजगारों की फौज कम हुई? क्या श्रमिकों के हित में श्रम कानूनों का पालन सख्ती से किया गया? क्या औद्योगिक सुरक्षा के माकूल बंदोबस्त किए गए तथा उन पर निगरानी रखी गयी? दुर्घटना की स्थिति में क्या उनके परिवारों के भरण-पोषण की जिम्मेदारी सुनिश्चित की गयी?

यदि ऐसा हुआ होता तो तो गोदावरी हादसे में मृत 8 श्रमिकों के परिवारों की परवाह की जाती, दुर्घटना के लिए केवल प्रबंधक को बलि का बकरा नहीं बनाया जाता. उसे सिर्फ तीन महीने सजा नहीं मिलती और उसके साथ संचालकों की गर्दन भी नापी जाती. अदालतें सबूत मांगती हैं तथा उसके आधार पर फैसला सुनाया जाता है. श्रम न्यायालय ने भी यही किया. कानून मजबूत है लेकिन केस को कमजोर बनाना आसान है. और यदि बड़ा उद्योग समूह हो और दुर्घटना कितनी भी बडी क्यों न हो, संचालकों पर कोई आंच नहीं आती.

गोदावरी इस्पात संयंत्र से कई गुना बड़ा वेदांता है. 23 सितम्बर 2009 को निर्माणाधीन 225 फीट ऊंची चिमनी के धराशायी होने से 41 श्रमिक मारे गए और उनके आश्रितों में से कुछ को नौकरी मिल पाई. शेष अभी भी आस लगाए बैठे हैं. यह सोचने की बात है कि मौत के मुआवजे में मिली राशि से क्या 5 सदस्यों के एक परिवार की ताउम्र जिंदगी चल सकती है? क्या कम्पनी प्रबंधन एवं जिला प्रशासन ने कभी इन परिवारों की सुध ली?
मुख्यमंत्री से लेकर पक्ष-विपक्ष के तमाम नेता घटनास्थल का दौरा कर आए, मातमी बोल बोल गए, संयंत्र प्रबंधन की लापरवाही को कोसा गया, अपनी-अपनी जांच कमेटियां बैठायी गयी और फिर सब चुप हो गए.

यद्यपि मुख्यमंत्री रमन सिंह ने तुरंत न्यायिक जांच की घोषणा की जिसे तीन महीने के भीतर रिपोर्ट देनी थी किंतु अभी तक सुनवाई का दौर ही पूरा नहीं हुआ है. कांग्रेस व वामदलों ने वेदांता समूह के चेयरमेन अनिल अग्रवाल व सीईओ गुंजन गुप्ता के खिलाफ भी आपराधिक प्रकरण दर्ज करने की मांग की थी जो मानी नहीं गयी.


मुख्यमंत्री रमन सिंह ने मृतक मजदूरों के परिवारों को रोजगार का आश्वासन दिया था, वह भी आधा-अधूरा रहा. कुछ को मजदूरी में लिया गया, शेष अभी भी भटक रहे हैं. चिमनी हादसे में केवल 41 लोगों के मारे जाने की अधिकारिक पुष्टि हुई लेकिन दैनिक मजदूर दुर्गेश धीवर एवं राजाराम चौहान अभी भी लापता हैं.

बालको एम्प्लाइज यूनियन के महासचिव बीएल नेताम के बयान पर यकीन करें तो ऐसे अनेक मजदूर जो घटनास्थल पर मौजूद थे, लापता हैं. उनके परिजनों की विचित्र स्थिति हो गयी है. वे काम के लिए भटक रहे हैं पर कहीं सुनवाई नहीं. चिमनी हादसे का मामला यद्यपि अदालत में पेश किया जा चुका है पर आरोपी 5 अधिकारी अभी भी फरार हैं. जिस चिमनी हादसे में इतने लोग मारे गए उस ब्रिटिश कंपनी वेदांता के अध्यक्ष अनिल अग्रवाल को इतनी फुर्सत नहीं मिली कि वे कोरबा आकर मृत मजदूरों के परिवारों को सांत्वना के दो शब्द कहते. तो यह है राज्य में कारखानेदारों का रवैया, मजदूर संगठनों की स्थिति एवं अस्वास्थ्यकर औद्योगिक वातावरण.

लेकिन औद्योगिक प्रगति के पीछे छिपे स्याह पन्नों का सफर यहीं खत्म नहीं होता. रायपुर, कोरबा व रायगढ़ देश के सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में शामिल हैं. राजधानी से सटे औद्योगिक क्षेत्रों में स्थित फैरो एलायज के संयंत्रों की चिमनियां इतनी राख एवं धुंआ उगलती हैं कि आसपास खेतों में महीन काली धूल की मोटी परत जम गयी है. किसानी चौपट है और किसान परेशान.



उनकी परेशानी एवं राज्य शासन की अकर्मण्यता का एक ही उदाहरण देना पर्याप्त होगा. भाजपाध्यक्ष नितिन गडकरी का ध्यान आकर्षित करने के लिए उनके 4-5 सितम्बर के रायपुर प्रवास के दौरान सिलतरा के ग्राम मुरेठी के खेतीहर मजदूर मनीराम यादव ने आत्मदाह का निर्णय लिया. उसने घोषणा की कि वह भाजपा कार्यकर्ता सम्मेलन के सभास्थल के सामने जान दे देगा.

इस मजदूर के पास डेढ़ एकड़ खेत है जो औद्योगिक काली राख से पट गया है. लिहाजा उसमें खेती नहीं हो सकती. अपनी शिकायत लेकर वह हर किसी के पास गया लेकिन किसी ने मदद नही की. न अधिकारियों ने, न नेताओं ने. लिहाजा कोई सुनवाई न होते देख उसने आत्मदाह का निर्णय लिया लेकिन गडकरी के प्रवास पूर्व ही उसे गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया. इस एक उदाहरण से राज्य में किसानों एवं खेतीहर मजदूरों की स्थिति, सरकार की बेरूखी एवं उद्योगपतियों की बेफिक्री का पता चलता है.

दरअसल छत्तीसगढ़ में औद्योगिक क्रांति का केवल राग अलापा जा रहा है. राज्य शासन के उद्योग एवं श्रम विभाग श्रमिकों से यादा उद्योगपतियों की चिंता करते हैं इसलिए श्रम नियमों की धज्जियां उड़ती रहती हैं. श्रमिकों का शोषण अबाध गति से जारी है. उनके हितों का संवर्धन इसलिए भी नहीं हो पा रहा है क्योंकि शंकर गुहा नियोगी की मृत्यु के बाद राज्य में श्रमिक आंदोलन खत्म-सा हो गया है.

बिखरे-बिखरे एवं पूंजीपतियों से आतंकित श्रमिक नेतृत्व की यह घोर असफलता है कि काम के दौरान घटित दुर्घटनाओं में मजदूरों की मौत के बाद उनके परिवारों को न्याय दिलाने एवं श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए औद्योगिक एवं श्रम न्यायालयों में लड़ाई ठीक से लड़ी नहीं जाती. इसी वजह से अदालती फैसले श्रमिक तथा उनके परिवारों का बहुत भला नहीं करपाते. गोदावरी दुर्घटना में 8 परिवार बेसहारा हो गए, किसे फर्क पड़ा? चिमनी हादसे में 41 की रोशनी छिन गयी, किसने उजाला लाने की कोशिश की?

उद्योग यदि बढ़ रहे हैं तो हादसे भी कम नहीं. लेकिन सरकार की चिंता उद्योग एवं उद्योगपतियों की है, हादसों की नहीं. कम से कम वेदांता चिमनी हादसे एवं गोदावरी दुर्घटना से तो यही प्रतीत होता है.



*रविवार से साभार

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