गुरुवार, 30 दिसंबर 2010

हम अधूरे हैं.



सुनील शर्मा

मैं अधूरा हूँ, तुम अधूरे हो,
नदी, नाले, पहाड़, वन सब अधूरे हैं,
निर्मला काकी, बंशी की भौजी,
मास्टरजी और उनका बेटा भी अधूरे है,

अधूरा है कुए का मीठा पानी,
और सौ बरस वाली बुढ़िया नानी.
छन्नू धोबी और उसके पड़ोस का पहलवान
रामू काका ,साहूकार और बच्चे शैतान,
गलियाँ, चौराहे और हर एक का मकान,
सब अधूरे है.

काली अँधेरी रात, दिन का प्रकाश,
हरी भरी धरती और नीला आकाश,
गुमसुम पेड़,चहचहाते पंछी,
बहती नदी,
सब अधूरे है.

आधे-अधूरे वाले मोहन राकेश भी अधूरे थे.
अब तक मैं जिससे भी मिला,
वो भी अधूरे थे,
खैर कोई बात नहीं,

तू भी तो पूरा नहीं हमारे बगैर,
हम आपस में मिलकर कुछ हद तक सही
पूरे होने का झूठा एहसास तो करते हैं,
तू तो उतना भी नहीं कर पाता,

फिर मालिक, खुदा, भगवान होने का क्या फायदा,
तू बगैर फायदे के कुछ भी करता होगा
हम तो अगरबत्ती भी मकसद से जलाते है.
हम अधूरे हैं.

2 टिप्‍पणियां:

  1. क्या बात है भैया रचना कब से करने लगे... बड़ी प्यारी और सत्य कविता है.............................

    जवाब देंहटाएं