गुरुवार, 2 दिसंबर 2010

हम प्यादे

सुदीप ठाकुर, आलोक प्रकाश पुतुल


()

ऐसी लड़ाई थी जिसमें हम भी शामिल थे
लेकिन हमें न तो शत्रु का पता था और न ही मोर्चे का


हम प्यादे थे

जाहिर है, हमारे लिए हार-जीत मायने नहीं रखती थी
यह बात अलग है कि हम हमेशा पराजित हुए
उस जीत में भी जिसमें हमारे सेनापति को
शौर्य के सबसे बड़े तमगे से नवाजा गया

हम हर जंग के बाद फौज की
विजय रैलियों में उसी तरह अकेले होते थे
जिस तरह मगध को फतह करने के बाद
अकेले सिर झुकाए लौट रहा था अशोक

हम अशोक नहीं सिर्फ प्यादे थे

( )
शाम को जब हम लौटते थे अपने-अपने शिविरों में
रोते-रोते साझा करते थे एक-दूसरे का दुख

फिर हम में से कोई प्यादा होने से करता था इंकार
और सेनापति बनने के लिए शुरु करता था तैयारी

कुछ थे जो इस इंकार के साथ
आत्महत्या करने के नए-नए तरीके तलाशते थे
शेष बचे लोग फिर से
अगली सुबह की लड़ाई की चिंता के साथ
उंघते-आंखे झपकाते, उबासियां लेते
सोने का असफल प्रयास करते थे.
( )
हम हर जंग जीत सकते हैं
हमसे हर बार कहा गया
कहा गया कि हमसे कोई फौज मुकाबला नहीं कर सकती
तो शौर्य में और ही कौशल में

हर बार कहा गया कि यह आखिरी जंग होगी

लेकिन हमें हमेशा रखा गया दुरभि संधियों से दूर
और हर मोर्चे पर हर बार छोड़ दिया गया हमें पिटने को

कि प्यादों के लिए नहीं होती कोई आखिरी जंग
कि उन्हें रोज लड़नी पड़ती है लड़ाई
हम रोज सुबह फिर हो जाते हैं तैयार मोर्चे पर जाने को



(४)
हमें कहा गया कि हम मानवता के लिए लड़ रहे हैं
लड़ रहे हैं क्योंकि हम ही लड़ सकते हैं
हममें ही माद्दा है लड़ने का
क्योंकि लड़ने के सिवा हमारे सामने कोई चारा नहीं है

लड़ाई का एक ऐसा जूनुन भर दिया गया कि
हमें यह देखने की भी फुर्सत नहीं रही कि
हम लड़ते लड़ते कितनी दूर चले आए

यहां हम अकेले थे
और हमारे पास अब लड़ने का अभिनय था
अब हम मुस्कराते हुए लड़ते थे
पराजित होने के लिए
(५)
किसी भी रूप में सकता है शत्रु
और कहीं भी हो सकती है जंग
इसलिए रहना पड़ता है हमेशा मुस्तैद

बावजूद इसके कि भोथरे हो चुके हैं हमारे हथियार
और जर्जर हो चुके हैं जिरहबख्तर

कि नहीं है हमारे लिए कोई संधि
कि नहीं है हमारे लिए कोई शांति वार्ता
कि नहीं है कोई संयुक्त राष्ट्र

कि कोई भी जंग निर्णायक नहीं होती
कि हर जंग होती है निर्णायक
()
सब हमसे डरते हैं
सब हमें देख कर मुस्कराते हैं
सब हमें सलाम ठोंकते हैं
सब हमें गालियां बकते हैं

और हम सब अलग-अलग खुश होते हैं
खुशफहमियां हमारी
सबसे बड़े हथियार

देर रात गए फुटपाथ पर
सोडियम लैंप की रोशनी में
पुरानी पैबंद लगी फटी कोट पहने
लंबी दाढ़ी और बिखरे बालों वाला पागल बूढ़ा
जाने क्या तलाशता है

हम भी जाने इसी तरह
क्या तलाश रहे हैं।

* पत्रकारिता पर लिखी इन मर्मस्पर्शी कविताओं की खास बात यह है कि ये कागज पर लिखे महज चन्द शब्द नहीं, बल्कि उन दो वरिष्ठ पत्रकारों के मन का भाव है जिन्होंने पत्रकारिता की सुबह, दुपहरी और उसकी सांझ देखी. हर हाल में पत्रकारिता और अपने साथ ईमानदार रहने का प्रयास किया. और जब एक दिन इस विधा के कारण ही उदासी ने उन्हें घेरा तो बरबस ही उनके मन का उक्त भाव बतौर कवितायेँ प्रकट हो गई. सही मायने में उन्होंने पत्रकारिता को जिया है. इन विद्वतजनो के मन के इस भाव को देश का वह हर पत्रकार महसूस करता होगा जिसने अभी तक कलम के साथ अपनी आत्मा का सौदा नहीं किया है. ऐसी पत्रकारिता करने वाले कलम के सिपाहियों को मेरा सलाम *

वर्तमान में सुदीप ठाकुर अमर उजाला दिल्ली और आलोक प्रकाश पुतुल रविवार डाट काम (www.raviwar.com) के संपादक है.

  • सुनील शर्मा

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