बुधवार, 22 सितंबर 2010

जाति को जड़ से उखाड़ने वाली औरतें

शिरीष खरे उस्मानाबाद से

"मुझे अपना हक पता है

फिर कैसे किसी को अपना कुछ भी

यूं ही निगलने दूं

हो जाल कितना भी घना

कितना भी शातिर हो बहेलिया।

अंत तक लड़ता है चूहा भी

उड़ना नहीं भूलती है कोई चिड़िया कभी।।"


माया शिंदे की यह अभिव्यक्ति यहां दलित महिलाओं की जिंदगी में आ रहे बदलाव को बयान करती है.



उस्मानाबाद जिले में अनुसूचित जाति की आबादी 15% से भी ज्यादा है. मगर 85% से भी ज्यादा परिवारों को अपनी रोजीरोटी के लिए या तो सवर्णों के खेतों में काम करना पड़ता है, या फिर उन्हें चीनी कारखानों के वास्ते गन्ने काटने के लिए महाराष्ट्र के दूर-दराज के इलाकों से लेकर कर्नाटक तक पलायन करना पड़ता है. उनके सामने आजीविका का कोई स्थायी साधन न होने से जीने का संकट पीढ़ी-दर-पीढ़ी खड़ा रहता है.

“कुल कितनी जमीनों में कितना अन्न उगाया है” के हिसाब से मराठवाड़ा में किसी आदमी की सामाजिक-आर्थिक और उसके आगे की राजनैतिक स्थितियां बनती और बिगड़ती हैं.


अब धोकी गांव की तारामती जैसी दर्जनों दलित महिलाएं अपने तजुर्बे से अब ऐसी बातें खूब जानने और समझने लगी हैं.


देश में कुल आबादी का एक-चौथाई हिस्सा दलितों और आदिवासियों का है. मगर उनके पास खेती लायक जमीन का महज 17.9% हिस्सा है. इसी तरह कुल आबादी में करीब आधी हिस्सेदारी महिलाओं की है, जो कुल मेहनताने में बड़ी हिस्सेदारी निभाती हैं. मगर उन्हें कुल मेहनताने का 10वां हिस्सा भी मुश्किल से मिलता है. ऐसे में दलित और उस पर भी एक दलित महिला होने की स्थिति को आसानी से महसूस किया जा सकता है.


लेकिन ऐसी स्थिति के खिलाफ मराठवाड़ा के धोकी गांव से धीरे-धीरे जाति की जड़ों को काटने का सिलसिला शुरू हो चुका है. यहां की दलित महिलाएं अब पथरीली जमीनों से अन्न उगाते हुए अपना दर्जा खुद तय करने लगी हैं.


जाग गई औरतें


‘‘लड़कियों का बेहिसाब घूमना-फिरना या किसी गैर से खुल के बतियाना कोई अच्छा रंग-ढंग नहीं होता है. बचपन से हमें यही तो बताया गया है.’’ मगर आज तारामती कस्बे बता रही हैं कि वह अब वैसी नहीं रहीं जैसे कि पहले थीं. नहीं तो बहुत पहले किसी अजनबी आदमी को देखा नहीं कि जा छिपती थीं रीति-रिवाजों की ओट में. इस तरह बाहरी मर्द से बतियाने के सवाल पर यहां कोई सवाल ही नहीं उठ पाता था. तारामती के सामने ऐसे ही और भी कई सवाल आते थे जो कभी नहीं उठे थे.

जैसे कि उन्हें अपने पति को पिटते हुए देखकर भी चुप रहना था. गांव में दबंग जात वालों से पूरी मजूरी मांगने का हौसला न उनमें था, और न उनके पति में. क्योंकि ऐसा सलूक तो शुरू से ही होता रहा है, सो यह कोई बड़ी बात भी नहीं जान पड़ती थी. इसके बावजूद अगर कोई मन-मुटाव होता भी था तो मजाल है कि चारदीवारी से बाहर चूं निकल जाए. और उस पर भी एक महिला की क्या बिसात कि वह ऐसे मन-मुटावों को लेकर न-नुकुर तो दूर खुसुर-फुसुर भी कर पाए?


‘‘छह साल पहले यहां की महिलाओं को हमने कुछ ऐसे ही हालातों के बीच देखा था.’’ लोकहित समाज विकास संस्थान के बजरंग टाटे अपनी बात जारी रखते हैं "उस समय अपने काम की शुरुआत करने के लिए हम अक्सर यहां आते-जाते थे.


मगर जो भी बातें निकलकर आतीं थीं वो केवल मर्दों की होतीं. जबकि हम महिलाओं के बीच की समस्याओं और उनमें सोचने की आदत के बारे में भी जानना चाहते थे. तब स्वयं सहायता समूह के विचार ने हमारा काम आसान किया. इस विचार ने महिलाओं के विचारों को आपस में जोड़ने में एक अहम कड़ी का काम किया. समूह के बहाने धीरे-धीरे जाना गया कि महिलाओं के भीतर गुस्सा फूट-फूटकर भरा है. और यह बहुत कुछ बदल देना चाहती हैं. इन्हें खुलेआम बोलने का मौका भी अगर मिला तो काफी कुछ बदल जाएगा..”



लंबा वक्त गुजरा. मगर तारामती जैसी दर्जनों महिलाएं एक के बाद एक अपने जैसे सबके भीतर भरे गुस्से से एक होती चली गईं. एक रोज धोकी की औरतों ने चर्चा में पाया कि जब तक जमीनों से अन्न नहीं लेंगे, तब तक रोज-रोज की मजूरी के भरोसे ही बैठे रहेंगे. अगले रोज हर एक ने सबके भरोसे में अपना-अपना भरोसा जताया और गांव से बाहर बंजर पड़ी अपनी जमीनों पर खेती करने का हौसला जुटाया. जैसे कि आशंका थी, गांव में दबंग जात वालों के गुस्से का पारा सिर चढ़ कर बोलने लगा.


दो-दो हाथ के लिये तैयार


हीरा बारेक पुराने दिनों को याद करती हुई कहती हैं- "उन्होंने सोचा कि जो कल तक हमारे गुलाम थे, वो अगर मालिक बने तो, तो उनके खेत कौन जोतेगा? पंचायत चलाने वाले बड़े लोगों ने मेरे परिवार को भी खूब धमकाया था. मगर हम अकेले नहीं थे. तब तक संगठन के बहुत सारे लोग भी हमारे साथ हो चुके थे. इसलिए सबके साथ मैंने आगे आकर ललकारा कि तुम अपनी ताकत आजमाओगे, आजमाओ. मेरे पति को मारोगे, मारो. असल में हम भी दिखा देना चाहते हैं कि हम क्या कर सकते हैं?"

उसके बाद पंचायत चलाने वालों ने एक रात बंजर जमीनों पर काम करने वाली महिलाओं के पतियों को एक साथ बुलाया और गांव से बहिष्कृत किए जाने का डर दिखाया. अगली सुबह तारामती और उनकी सहेलियों ने अपने-अपने झोपड़ियों से निकलते हुए कहा कि “मर्द लोगों को अगर डर लगता है तो रहो इधर. मगर हम तो काम पर जाएंगे.”


दोपहर तक बहुत सारे दलित मर्द जमीनों पर आएं. कुल जमा 50 जनों ने वहीं बैठकर फैसला लिया कि वह “गांव में भी समूह बनाकर रहेंगे और खेतों में भी और रही बात रोजमर्रा की जरूरतों की तो उसके लिए पड़ोस के गांव वालों से संपर्क साधेंगे.” उसके बाद से पहली बार ‘स्वयं सहायता समूह’ की बैठक में महिलाओं के साथ मर्द भी बैठने लगे.


उसके पहले तक तो महिलाओं का समूह अपनी रोजमर्रा की बातों पर ही बतियाता था. मगर इस घटना के बाद से यह समूह गांव के नल का पानी भरने जैसी बातों पर भी गंभीर चर्चा करने लगा. यहां की महिलाओं ने पानी में अपनी हिस्सेदारी के लिए न केवल सोचा बल्कि पानी भरके भी दिखला दिया. और उसके बाद से तो खुद को ऊंची जात का कहने वालों ने जहां-जहां सार्वजनिक उपयोगों की जिन-जिन बातों पर रोक लगाई थी, वह एक-एक करके टूटती चली गईं.

यह सच था कि तारामती के समूह से जुड़ी महिलाओं के मुकाबले दूसरी जाति की महिलाओं में भिन्न्नताएं साफ-साफ दिखती थीं. फिर भी एक बात से सारी महिलाएं एक साथ जुड़ी थीं कि परंपराओं के लिहाज से सबको मान-मर्यादा का ख्याल रखना ही चाहिए.


ऐसे में तारामती और उनके समूह के गांव से बाहर आने-जाने और बार-बार संगठन के दूसरे साथियों से मिलने-जुलने के ऐसे मतलब निकाले गए, जो उनके चाल-चरित्र पर हमला करते थे. पर तारामती यहां से भी एक कदम आगे जाकर उप-सरपंच का चुनाव भी लड़ीं. यह और बात है कि वह चुनाव हारीं. मगर जहां किसी दलित के चुनाव लड़ने को सामान्य खबर न माना जाए, वहां एक दलित महिला के मैदान में कूदने की चर्चा तो गर्म होनी ही थी.


लेकिन तारामती, हीरा बारेक, संगीता कस्बे को तो और आगे जाना था. इसलिए यहां से महिलाओं को पहली बार मर्दो के बराबर मजूरी की मांग उठी. उसके पहले उन्हें रोजाना 40 रूपए मजूरी मिलती थी. जो मर्दो के मुकाबले आधी थी. विरोध के बाद उन्हें रोजाना 65 रूपए मजूरी मिलने लगी. जो मर्दो से थोड़ी ही कम थी.


सम्मान हमारे हिस्से भी



तारामती और उनके समूह की महिलाएं पंचायत में जगह बनाने की जद्दोजहद से लेकर जायज मजूरी की मांग तक इसलिए पहुँच सकीं, क्योंकि स्थायी आजीविका के साधन के रूप में उन्हें अपने खेतों से फसल मिलने लगी थी.

संगीता कस्बे बताती हैं “ उससे पहले वो सवर्ण हमें नाम के बजाय जात से बुलाते थे. जैसे जात न हो गाली हो. 'क्या रे ऐ...', 'क्यों रे...'- ऐसे बोलते थे. अब वो ईज्जत से बुलाते और बतियाते हैं. आज तुम काम पर आ सकते हो या नहीं ?- ऐसा पूछते हैं. सबसे बढ़कर तो यह हुआ कि पंचायत में हमारी सुनवाई होने लगी. हम जानने लगे कि सही क्या है, हक क्या है. हर चीज केवल उनके हिसाब से हमेशा से तो नहीं चल सकती है न."


हम जब तारामती के समूह से बतिया रहे थे तो दूर के डोराला गांव से कुछ महिलाएं भी पहुंचीं थीं. वह भी अपने यहां 'स्वयं सहायता समूह' बनाना चाहती थीं. उसी समय जाना कि औरतों का समूह जरूरत पड़े तो मर्दो को भी कर्ज देता है. इस समूह में बच्चों की पढ़ाई और किसी अनहोनी से निपटने को पहली वरीयता दी जाती है. पांडुरंग निवरूति ने बताया- "आसपास ऐसे 16 महिला घट बनाये गए हैं. हर घट में कम से कम 10 महिलाएं तो रहती ही रहती हैं."


वहीं विनायक माने मानते हैं-“ जब दलितों की अपनी जमीन होगी तो मजदूरों की कमी पड़ जाएगी. ऐसे में बड़े किसानों को मजूरी बढ़ानी और काम के घण्टे तय करने होंगे. इससे हम छोटे किसानों और मजदूरों को फायदा होगा. तब हम अपनी खेतीबाड़ी से फुर्सत होने के बाद उनके खेतों के काम निपटायेंगे. मगर बंधुआ मजदूर बनकर नहीं बल्कि अपनी मेहनत का सही मेहनताना लेकर.”


प्रभाकर सावले समझाते हैं-
"तब हम खेतों से साल भर का अनाज बचा सकते हैं और चारा बेचकर कुछ पैसा भी. इस तरह कई बकरियां खरीद सकते हैं. हम बहुत अमीर नहीं होंगे. मगर गृहस्थी की हालत पहले से और ठीक जरूर हो जाएगी."



तारामती कहती हैं "अगर हम ऐसे ही बैठे रहते तो जो थोड़ा बहुत पाया है, वो भी हाथ नहीं लगता. ऐसा भी नहीं है कि हमारी हालत बहुत सुधर गई है, अभी भी काफी कुछ करना है." यह सच है कि यहां काफी कुछ नहीं बदला है फिर भी कम से कम इन महिलाओं की दुनिया बेबसी के परंपरागत चंगुलों और उनके बीच झूलती निर्भरताओं से तो किनारा पा ही रही है.

एक सदी पहले महात्मा फुले ने कहा था- ``शिक्षा बिना मति गई/मति बिना गति गई। गति बिना अर्थ गया/और अर्थ बिना शूद्र बर्बाद हुए.´´ हमारी पंरपराओं ने दलितों को धन रखने की आजादी नहीं दी जिससे वह लाचार हुए. इसलिए वह सवर्णों पर निर्भर हो गए. यह निर्भरता आज तक बरकरार है. ऐसे में अगर दलितों को आत्मनिर्भर बनाना है तो उन्हें जीने के संसाधन देने होंगे. और फिलहाल यहां जमीन से बेहतर दूसरा विकल्प नजर नहीं आता है. जमीन मिलते ही लोग मालिक बन जाते हैं. इसलिए दलित महिलाओं के यह जमीन की यह लड़ाई स्वाभिमान की लड़ाई से भी जुड़ी है.


चलते-चलते

मराठवाड़ा में उस्मानाबाद से लगे बीड़ जिले के दलितों ने `जमीन हक अभियान´ से जुड़कर जमीन का मतलब जाना और लंबे संघर्ष के बाद समाज का ताना-बाना पलटकर रख दिया. इन दिनों 69 गांवों की करीब 2000 एकड़ पहाड़ियां दलित-संघर्ष के बीज से हरी-भरी हैं. इस संघर्ष में महिलाओं ने भी बराबरी से हिस्सेदारी निभायी थी. इसलिए उन्हें जमीन का आधा हिस्सा मिला. इसीलिए खेतीहीन से किसान हुए कुल 1420 नामों में से 710 नाम महिलाओं के हैं.

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