शुक्रवार, 9 सितंबर 2011

चला गया "क्यों जी" कहने वाला

श्री कौशल मिश्र
जब कोई अपना मौत की नींद सो जाता है तो हम भी उसके साथ थोड़ा—थोड़ा मर जाते हैं. ऐसा श्री आलोक पुतुल जी कहते थे है. आज मुझे भी लगता है कि कौशल भैया के चले जाने से मैं भी थोड़ा मर गया.

अभी कल ही की तो बात लगती है जब कौशल भैया ने हरिभूमि में मेरी कापी सुधारते हुए मुझसे कहा था...’’ क्यों जी लिखना नहीं आता तो कोई दुकान क्यों नहीं खोल लेते...’’, ‘’ लिखा—पढ़ा करो पंडित जी...’’ दो दिन पहले प्रेस क्लब में उनसे मिला......तो बड़े खुश हुए...हाल—चाल पूछा...मुझ पर उनका बहुत स्नेह था... उनके पास सिगरेट खत्म हो गई थी...उन्होंने शिरीष डामरे से एक सिगरेट मांगी और मुझे माचिस लाने कहा....प्रेस क्लब में शर्मा जी से मैंने लाइटर लिया और उनकी सिगरेट सुलगाई.

कई साल हो गये...दैनिक हरिभूमि पत्रकारिता का मेरा पहला स्कूल था...मेरे स्कूल के पहले टीचर श्री कैलाश अवस्थी थे. शुरूआत बहुत अच्छी नहीं हुई पर चूंकि काम सीखना था इसलिए भिड़ गए सीखने...अवस्थी जी से कई चीजें सीखने को मिली. अभी कुछ ही दिन हुए थे कि अंदर से खबर आई कि सिटी चीफ बदलने वाला है और यह महत्वपूर्ण जिम्मेदारी अवस्थी जी की जगह कौशल मिश्र को दी जाने वाली है. यह सुनकर तो मेरा जैसे कलेजा ही कांप गया...उनके बारे में जो सुना था, वह मन में डर पैदा करने के लिए काफी था. मैंने अश्वनी चौबे जी से उनके बारे में पूछा तो उन्होंने जैसे मुझे और डरा दिया—नाराज होते हैं तो कापी फेंक देते है...जुबान इतनी कड़वी है कि मत पूछो वगैरा—वगैरा.

खैर थोड़ा पता किया तो मालूम हुआ कि कौशल मिश्र जुबान से कड़वे सही पर दिल के साफ आदमी है...अंबिकापुर में रिबई पंडो के परिवार के दो लोगों की भूख से मौत की खबर को कवर करने वाले श्री मिश्र ही थे जिनकी खबर पर तत्कालिन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव को  सरगुजा आना पडा और...इसके बाद से ही छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता में श्री मिश्र छा गये...तब वे देशबंधु में थे.

शायद वो सर्दियों के दिन थे...हरिभूमि में अपनी चेयर पर बैठे सिटी—चीफ कापी सुधार रहे थे...और कुछ—कुछ उखड़े हुए लग रहे थे...ऐसा अक्सर होता जब कापी में बहुत गलतियां होती तो वो झुंझला जाते. वो लेखन में ढीला—ढाला रवैया पसंद नहीं करते थे और खुद भी खूब मेहनत करते थे और करवाते भी थे.
(उन्हें शराब की बुरी लत थी और सिगरेट भी पीते थे लेकिन इसके बावजूद कभी इसका असर उनके काम पर दिखाई नहीं देता था.)

अक्सर कहा करते थे.... सरल लिखना बहुत कठिन है पंडितजी. अच्छे से लिखना सीख जाओ...एक बार तो मुझसे पूछा था.क्यो जी कितने तक पढ़े हो ? मैंने जवाब दिया था. एमए अंग्रेजी...हंसते हुए कहा था.अंग्रेजी में एमए क्या सोचकर किया था...तब मैं भी एक बार सोच में पड़ गया कि जब मुझे हिंदी के अखबार में काम करना है तो अंग्रेजी में पोस्ट ग्रेजुएशन क्यों किया. खैर...नहीं बहरहाल...क्योंकि ये जो बहरहाल शब्द है...ये कौशल भैया को बहुत पसंद था...बहुत सारी बातें बताने की इच्छा है पर कभी विस्तार से लिखूंगा...फिलहाल ये कि कल बहुत खुश थे...शायद बिटिया की शादी ठीक कर आए थे...मुंगेली के जिला बनने से भी खुश थे और जब मिले थे तो बता रहे थे कि पुश्तैनी मकान में एक काम्प्लेक्स खड़ा करना चाहते हैं ताकि बुढ़ापा आराम से कटे. पर उनका यह ख्वाब पूरा न हो सका...दुखद है...ऐसे आदमी का असमय जाना...

उनसे जुड़ी कई बातें है...जब भी किसी ने मदद मांगी...मदद की...पत्रकारों के पैरोकार थे.संपादक से अपने रिपोर्टर के लिए कई बार लड़ाई की.अखबारों में पत्रकारों की कम तनख्वाह को लेकर अक्सर खिसियाते थे, प्रबंधन की क्रूरता को अच्छी तरह समझते थे...कई बार अखबार छोड़ा पर पारिवारिक जिम्मेदारियों के चलते फिर ज्वाइन भी किया...कुछ विवादों से भी नाता रहा लेकिन कौशल भैया...इन सबके बाद भी एक अच्छे इंसान थे.आज के दौर में ऐसा इंसान, खासतौर पर पत्रकारिता जगत में दुर्लभ है.जिन लोगों ने उनके साथ काम किया है वे  जानते हैं कि उनसे उन्होंने क्या—कुछ सीखा है.

अगर पत्रकारिता के शुरूआती दिनों में मुझे उन्होंने डांट की घुट्टी नहीं पिलाई होती तो शायद मैं कुछ न कर पाता...हरिभूमि के स्थानीय संपादक श्री संदीप सिंह ठाकुर जी और कौशल भैया के बीच किसी बात को लेकर अनबन हो गई...मैं वेटरन क्रिकेट मैंच जो कि भारत और पाकिस्तान के सीनियर खिलाड़ियों के बीच हुई, जिसमें अजहर, जडेजा, वकार, मोंगिया,आदि शामिल थे का कवरेज करने कोरबा गया था, लौटकर मैंने एक संस्मरणात्मक रिपोर्ट लिखी...''अमन के सफर का गवाह बना छत्तीसगढ'' अब चूंकि मुझे रिपोर्टिंग के लिए संपादक जी ने भेजा था इसलिए मैंने वह रिपोर्ट पहले संपादक जी को ही दिखा दी...उन्होंने मार्क करके कौशल भैया के पास भेजी और कौशल भैया ने तीन चार प्वाइंट लिखकर उस रिपोर्ट को मेरे पास भेज दिया...जिसमें उन्होंने उसे जारी करने से इनकार कर दिया था...मैं सन्न रह गया...पर कुछ भी कहने की हिम्मत नहीं हुई....रिपोर्ट मैंने संपादक जी के पास भिजवा दी...वह रिपोर्ट छप गई और इससे कौशल भैया मुझ पर और नाराज हो गए.
अगले दिन जब मैंने एक अन्य रिपोर्ट उन्हें पढ़ने दी तो मुझे बुलाकर जोर से कहा—अब अपनी सभी रिपोर्ट संपादक जी से ही चेक करवाना मैं तुम्हारी रिपोर्ट चेक नहीं करूंगा....मैं दंग रह गया...तब चुप रहा...एक—दो दिन ऐसे ही चलता रहा...फिर मैंने एक दिन सुबह—सुबह उनके घर की राह ली...दरवाजा खटखटाया,,,दरवाजा उन्होंने ही खोला और बड़े ही प्रेम से बिठाया...चाय पिलवाई...फिर इस तरह अचानक आने का कारण पूछा तो मैंने अपनी गलती के लिए उनसे क्षमा मांगी तो वे बोले...ठीक है. दोबारा ऐसा न हो...फिर मुझे हंसते हुए विदा किया...ऐसे थे कौशल भैया..बिल्कुल नारियल की तरह बाहर से सख्त और अंदर से कोमल...
कौशल भैया....हमें आप इस तरह छोड़कर चले जाओगे सोचा नहीं था...

ईश्वर आपकी आत्मा को शांति प्रदान करें और आपके परिवार को इस असीम दुख को सहने का साहस दें.
करीब सोलह महीने पहले 28 अप्रैल 2010 को अपने ब्लाग ''घर छत्तीसगढ़'' में कौशल भैया ने ये कविता पोस्ट की थी.उसे नाम दिया था... समर्पण

कुछ  ऐसी 
कशिश  है
तेरे  इंतज़ार  में  .
डर  लगता  है
अब  तो    
कहीं  आ ही  न  जाओ  तुम  .

अब हम कहाँ रहे हम
हम तुममें खो चुके हैं
जब खुद को ढूढ़ लोगे
तब हमको पाओगे तुम .

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नहीं पता था कि इतनी जल्दी मौत को अपना देह समर्पित कर देंगे...जीवट कौशल भैया इतनी जल्दी चले जाएंगे, एक बार तो मौत से लड़कर आ भी चुके थे...पर इस बार...
आंखे भर आई है साथियों...जल्दी ही कुछ और पोस्ट करूंगा.
अभी इतना ही...

— सुनील शर्मा