बुधवार, 17 नवंबर 2010

गरीबी दूर करने लकड़ी की साइकिल

राजेंद्र राठौर. जांजगीर चांपा

सरकार गरीबी दूर करने का प्रयास कर रही है या नहीं यह तो सभी जानते हैं लेकिन यदि गांव का कोई युवा गरीबी और गरीबों के बारे सोचता ही नहीं बल्कि ऐसा कुछ करता भी है तो बात विचाणीय हो जाती है.

जांजगीर-चांपा जिले के एक छोटे से गांव पौना के आर्थिक तंगी से जूझ रहे बलिराम का सपना था कि वह ऐसा कुछ कर दिखाए कि उसकी गरीबी भी दूर हो जाए और शोहरत भी मिले साथ ही ऐसा कुछ करें के लोग उससे प्रेरित भी हो. उसने महज1000 रूपए खर्च कर लकड़ी से साइकिल तैयार की.

कामयाबी हासिल करने के लिए उसे बड़ी मेहनत करनी पड़ी। इस दौरान अनेको बार उसे निराशा भी हाथ लगी लेकिन जज्बे पर आत्मविश्वास को आखिर जीत मिल ही गई। गांववाले इस युवा कारीगर की इस कारीगरी को देखकर चकित है. महंगाई ने जहां एक ओर आम लोगों की कमर तोड़ कर रख दी हैं, वहीं आम आदमी को अपने बच्चों के लिए सामान जुटाने में पसीना छूट जाता है. ऐसी महंगाई से निपटने के लिए शिवकुमार कश्यप के बेटे बलिराम ने कम लागत से लकड़ी की साइकिल तैयार की है. यह सायकल उन लोगों के लिए कारगर साबित हो सकती है जो अपने बच्चों को बड़ी कंपनियों की महंगी सायकलें खरीद कर नहीं दे सकते।

बाजार में बिक रही साइकिलों के दाम 3000 रूपए से कम नहीं हैं लेकिन बलिरा ने जो साइकिल बनाई है उसकी लागत महज1000 रूपए है.यही नहीं साइकिल की मजबूती इतनी कि तीन लोग भी इस पर आराम से सवारी कर सकते हैं. बबूल की लकड़ी से नायाब साइकिल बनाने वाले बलिराम का कहना हैं कि उसके परिवार की आमदनी काफी कम थी जिसके कारण थोड़ी-बहुत पढ़ाई करने के बाद उसे आगे पढ़ने का मौका नहीं मिल सका. ऐसे में उसे अपने पिता के साथ बढ़ई का काम सीखना पड़ा और वह लकड़ी से पलंग, कुर्सी, सोफा आदि बनाने लगा.

इसके बाद उसने बढ़ई काम में निपूणता हासिल करने के लिए तिलई गांव के गोविंद बढ़ई से काम सीखा. दो माह काम सीखने के बाद उसे घर में साइकिल नहीं होने से आवागमन करने में परेशानी होने लगी. उसने लकड़ी से साइकिल बनाने का इरादा बनाया. कुछ दिनों तक बार-बार प्रयास करने के बाद उसे आखिरकार लकड़ी की साइकिल बनाने में सफलता मिल ही गई।

लगातार10 तक मेहनतकर इस कारीगर ने कम कीमत पर लकड़ी की साइकिल बना डाला जिसे उसने आकर्षक रूप देने के लिए कुछ कलाकारी भी की। बलिराम ने बताया कि उसे घर के लोग इस काम को छोड़कर फर्नीचर आदि बनाने के लिए कहते थे.

बबूल की लकड़ी से बनी नायाब साइकिल देखने में तो आकर्षक है ही साथ ही मजबूत भी है। साइकिल के लगभग सभी हिस्से लकड़ी से ही बने हैं लेकिन साइकिल में चाल लाने के लिए लकड़ी के पहिए की जगह ट्युब और टायर लगाए गए है. युवक बलिराम जब इस साइकिल पर सवार होकर गांव की गलियों से गुजरता है तब बच्चे बूढ़े और जवान उसकी सायकल को बार-बार देखकर चकित हो जाते हैं साथ ही उसे चलाकर और उस पर सवारी करके मजा भी लेते हैं.

बलिराम के इस कार्य से लोग न केवल प्रोत्साहित हो रहे है बल्कि उन्हें नई दिशा भी दिखाई दे रही है. बलिराम ने साइकिल बाजार तक पहुंचाने की तैयारी भी कर ली है. इस साइकिल का वजन भी आम साइकिलों से काफी कम है.

अब बनायेगा आटो

बलिराम का कहना है कि वह अब लकड़ी का आटो बनाएगा जिसमें 8लोग आराम से सफर कर सकेंगे और उसकी लागत सिर्फ 20 रूपए होगी. उसका दावा है कि लकड़ी की आटो एक लीटर पेट्रोल में 60 किलोमीटर से भी अधिक दूरी तय कर सकेगी लेकिन अपने सपनों को पूरा करने के लिए उसे आर्थिक मदद की जरूरत है. बहरहाल आदर्श ग्राम के रूप में दर्जा पा चुके पौना गांव की पहचान प्रदेश में बनाने के लिए होनहार युवक बलिराम मील का पत्थर साबित होगा. बस सिर्फ इस कारीगर को शासन-प्रशासन से मदद की दरकार है.

मंगलवार, 2 नवंबर 2010

भास्कर के खिलाफ पत्रकारों का संघर्ष जारी

सुनील शर्मा, बिलासपुर

2008 में जब वैश्विक आर्थिक मंदी के दौर में पूरा देश और समूचा विश्व परेशान था ऐसे समय में अकारण ही नौकरी से वंचित होकर परेशान होने वालों की लंबी फेहरिस्त में दिल्ली, मुंबई, कोलकाता जैसे महानगरों और भोपाल, पूना जैसे मेट्रो सिटी के साथ ही छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जैसे छोटे से शहर में समाज और मानवीय मूल्यों की रक्षा के लिये कलम चलाने वाले पत्रकार भी शामिल थे।

सच कहे तो आर्थिक मंदी महज एक बहाना था. दरअसल जिस तरह से पत्रकारों और कमोबेश फोटोग्राफरों व अन्य मीडियाकर्मियों को बाहर का रास्ता दिखाया गया, उसके पीछे ऐसे अखबार समूहों की साजिश थी जो कम दाम में अधिक काम की मानसिकता से ग्रस्त थे. पहले स्थापित होने के लिये
उन लोगों ने भले ही पर्याप्त कर्मचारियों की नियुक्ति कर ली थी लेकिन उसके बाद कम वेतन देना न पड़े इसलिये उन्होंने आर्थिक मंदी का बहाना बनाकर कर्मचारियों के साथ पत्रकारों को भी ठिकाने लगाना शुरू कर दिया।

दिन-रात एक कर अपने हिस्से के भी समय को समाज और देश के नाम करते हुये लोगों के अधिकार, सामाजिक समस्याओं, सरकारी तंत्र की कमजोरियों और उसकी नाकामियों के खिलाफ कलम चलाने वाले कलम के सिपाहियों की हालत और उनकी स्थिति हालांकि अब किसी से छिपी नहीं है लेकिन आज भी आम लोग पत्रकारों पर होने वाले अत्याचार और उनके शोषण की कहानी नहीं जानते.

समय-समय पर अखबारों में नहीं पर पत्रकारिता के कुछ अन्य माध्यम (वेब पोर्टल) के माध्यम से पत्रकारों पर होने वाले अत्याचार और उनके खिलाफ रची जाने वाली साजिश का पर्दाफाश होता रहा है. इसके लिये ऐसे माध्यम साधुवाद के पात्र तो है लेकिन एक बड़ा संकट यह भी है कि आखिर केवल प्रकाशित करने से या इंटरनेट पर अपने सुधी पाठकों तक ऐसी सामग्री पहुंचाकर क्या दैनिक भास्कर जैसे अखबार समूह का कुछ बिगाड़ा जा सकता है।

वैश्विक आर्थिक मंदी का बहाना बनाकर पत्रकारों को निकाले जाने के इस प्रकरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि लोकतंत्र के चौथे स्तंभ में दरार पड़ चुकी है. क्योंकि इस चौथे स्तंभ पर अब चंद पूंजीपतियों का जैसे मालिकाना हक है. उन्हें न पढऩा-लिखना आता है और न ही उन्हें देश की जनता और उनकी पीड़ा से ही कोई लेना-देना है. वे तो गरीबों की भूख, औरतों के बलात्कार और बच्चों की कुपोषण से मौत की खबर भी केवल इसलिए छा
पते हैं क्योंकि उन्हें इससे पूंजी कमाना है. अखबारों का यह पूंजीवादी स्वरूप 21 सदी की सबसे बड़ी समस्याओं में से एक है. आम जनता आज भी अखबार में लिखा हुआ को सच मानती है जबकि सच तो यह है कि छपता वहीं है जो पूंजीपति छापना चाहते हैं।

अब न प्रेमचंद है और न महावीर प्रसाद द्विवेदी, माधव राव सप्रे की भी पत्रकारिता का अंत हो चुका है. अब तो पेड न्यूज का विरोध करने वाले प्रभाष जोशी भी इस दुनिया में नहीं है और नांदगांव के मुक्तिबोध भी इस संसार से विदा हो चुके हैं. अब तो ऐसे संपादक, अखबार मालिक पत्रकारिता की जमीन पर उग आये है जो बातें तो जनता की समस्याओं के बारे में करते हैं लेकिन उनका पूरा ध्यान पावर प्लांट लगाने, कोलवाशरी चलाने और शराब का ठेका, पेट्रोल पंप के लाइसेंस से लेकर मकान बनाने में रहता है.

साफ-साफ कहे तो दलाल, बिल्डर, उद्योगपति, शराब ठेकेदार, भू-माफिया, नेताओं के चमचे और न जाने किस-किस बिरादरी के कैसे-कैसे लोग अखबारों के धंधे में
शामिल हो चुके हैं. कलम की धार कमजोर क्या पूरी तरह खतम हो चली है, यहां साथी वी.वी.रमण किरण की बहुचर्चित कविता बरबस ही याद आती है-


कलम टूटकर लकड़ी बन गई,

रोटी सेंकने का साधन बन गई।

पत्रकारों पर अत्याचार और उनके शोषण की कहानी कोई नई नहीं है. यह तो इमरजेंसी और इम
रजेंसी के पहले से चली आई है पर 2008 में मीडिया के क्षेत्र में जो कुछ हुआ उसने पूरे पत्रकारिता जगत में उथल-पुथल मचा दी. छत्तीसगढ़ के बिलासपुर शहर से लेकर दिल्ली, मुंबई, कोलकाता जैसे महानगरों के पत्रकार भी इससे प्रभावित हुये बिना नहीं रह सके. 2008 में आर्थिक मंदी की आड़ में सैकड़ों की तादाद में पत्रकारों को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया. और सोचने वाली बात यह है कि ये सभी ऐसे अखबारों से थे जो देश में खुद को नंबर वन, नंबर टू या नंबर थ्री कहकर गौरान्वित महसूस करते हैं।

बिलासपुर में पत्रकारों के खिलाफ साजिश और उन्हें मानसिक प्रताडऩा देने की शुरुआत का श्रेय दैनिक भास्कर के उस कार्यालय को जाता है जिसका दफ्तर रवींद्र नाथ टैगोर चौक से गांधी चौक जाने वाले मार्ग पर माननीय उच्च न्यायालय भवन के ठीक सामने गुंबर काम्पलेक्स में स्थित है. यदि मैं गलत नहीं हूं और मेरी स्मृति को कुछ नहीं हुआ है तो वह 20 दिसंबर 2008 को सुबह 11 बजे की बात है, उस समय संपादकीय विभाग की मीटिंग होती थी और अब भी होती है. वरिष्ठ पत्रकार शैलेंद्र पांडेय, मोहम्मद यासीन अंसारी, सुनील शर्मा और फोटो जर्नलिस्ट वी. वी. रमण किरण दैनिक भास्कर के दफ्तर पहुंचे. जैसे ही वे रिसेप्शन से होकर गुजरने लगे उन सभी को रिसेप्शनिस्ट ने यह कहकर रोक दिया कि उसे आदेश है कि आप लोगों को अंदर न आने दिया जाये।

हेड सुपरवाइजर श्री झा ने भी रिसेप्शनिस्ट की बात को दोहराया. पत्रकारों ने उनसे पूछा कि आखिर ऐसा क्या हो गया जो उनके साथ ऐसा व्यवहार किया जा रहा है? श्री झा ने उनसे कहा कि वे पता करके आते हैं तब तक वे वेटिंग रूम में चाहे तो इंतजार कर सकते है. पत्रकारों को इस अपमान और इस व्यवहार से बेहद पीड़ा हुई लेकिन वे बगैर कारण जाने कुछ नहीं कर सकते थे. बिलासपुर में पत्रकारों के साथ अपने ही दफ्तर में होने वाले दुर्व्यवहार की यह पहली घटना थी जिसे किसी भी सूरत में सामान्य नहीं लिया जा सकता था।

खैर पत्रकार अपमान का घूट पीते हुये वेटिंग रूम में इंतजार करने लगे लेकिन दो घंटे तक इंतजार करवाने के बाद स्थानीय संपादक संदीप सिंह ठाकुर और क्षेत्रीय प्रबंधक देवेश सिंह ने उन्हें अगले दिन आने का संदेश चपरासी के माध्यम से भिजवा दिया. दूसरे दिन जब सुबह 11 बजे पत्रकार पहुंचे तो उन्हें फिर से वेटिंग रूम में डेढ़-दो घंटे तक इंतजार करवाया गया और उसके बाद उनके हाथों में एक-एक पत्र थमा दिया गया जो दरअसल उनका स्थानांतरण आदेश- पत्र था.

स्थानांतरण आदेश देखकर पत्रकार हतप्रभ रह गये. पत्र पढक़र पता चला कि शैलेंद्र पांडेय का अंबिकापुर, मोहम्मद यासीन अंसारी का रायगढ़, सुनील शर्मा का जशपुर और वी.वी. रमण किरण का रायगढ़ ब्यूरो दफ्तर में स्थानांतरण कर दिया गया है. देखते ही देखते पत्रकारों के सामने विकट परिस्थिति आ खड़ी हुई. उन्हें समझ में ही नहीं आ रहा था कि वे क्या करें? उन्होंने जब इसका कारण पूछा तो उन्हें इसका कारण भी नहीं बताया गया।

दफ्तर के अन्य साथियों से पता चला कि उन्हें उनके एक सप्ताह के अवकाश पर चले जाने के कारण यह सजा दी गई है. जबकि सच्चाई यह थी कि अखबार समूह इस छोटी सी गलती की सजा नहीं दे रहा था बल्कि पत्रकारों को निकाल बाहर करने की योजना बना चुका था. साजिश रची जा चुकी थी और प्रबंधन जानता था कि पत्रकार इतनी कम तनख्वाह में दूसरे शहर नहीं जायेंगे और वे नौकरी छोड़ देंगे. और ऐसा उसने केवल बिलासपुर में नहीं किया, अपने अन्य एडीशन में भी इस अखबार ने किया जिसका कवरेज भड़ास-4-मीडिया ने किया था।

पत्रकारों के सामने दो ही विकल्प थे, पहला उतने ही वेतनमान में ट्रांसफर पर जाये या फिर नौकरी छोड़ दे. पत्रकारों ने प्रबंधन को पत्र लिखकर अपनी आर्थिक, सामाजिक एवं पारिवारिक समस्याओं का जिक्र करते हुये स्थानांतरण रद्द करने की मांग भी की लेकिन बात नहीं बनी।

दोनों ही विकल्प पर विचार करने के पश्चात पत्रकारों ने तीसरे विकल्प की तलाश की जो उन्हें न्याय की देहरी पर अर्थात अदालत पर ले गई, जहां पत्रकारों ने न्याय की गुहार लगाई. साजिश का शिकार हुये पत्रकारों ने सिविल कोर्ट में परिवाद दायर कर स्थानांतरण रद्द करने की मांग की. उन्हें अंतरिम रूप से न्याय भी मिला. संबंधित अदालत ने मामले के निराकरण तक यथास्थिति बनाये रखने का आदेश देते हुये पत्रकारों को दैनिक भास्कर के बिलासपुर कार्यालय पर ही काम पर रखने का आदेश प्रबंधन को दिया।

इसके बाद पीडि़त पत्रकारों ने नौकरी ज्वाइन की. नौकरी ज्वाइन करने के महज कुछ ही दिनों बाद प्रबंधन ने ऊपरी अदालत से एक अंतरिम आदेश का हवाला देते हुये पत्रकारों को पुन: काम से निकाल दिया. यदि वास्तव में देखा जाये, तो यथास्थिति का तात्पर्य ऐसा नहीं था, बल्कि यथास्थिति का मतलब तो यहीं होता है कि जो पत्रकार जिस स्थिति में यहां के कार्यालय में काम कर रहे हैं, उन्हें वहां उसी स्थिति में काम करने दिया जाये.

फिर निचली अदालत के जिस आदेश का परिपालन हो चुका था, उसे कैसे वापस लिया जा सकता था? बहरहाल प्रबंधन ने ऊपरी अदालत के जिस आदेश की त्रुटिपूर्ण व्याख्या करके छलपूर्वक व्यवहार करते हुये पत्रकारों को काम से निकाल दिया. इस मामले को लेकर पीडि़त पत्रकारों ने पुन: अदालत में गुहार लगाई, जिस पर सुनवाई चल रही है. मामला फिलहाल लंबित है और पीडि़त पत्रकार किसी तरह तंगहाली में गुजर-बसर कर रहे हैं।

उक्त मामले में एक बात तो स्पष्ट है कि पत्रकारों के लिये आज भी जीवन-यापन की अनिश्चितता बनी हुई है. वे लोगों के लिये आवाज उठाकर, संघर्ष करके भले ही उन्हें न्याय दिलाने में सहयोग करते हैं. यथासंभव वे इसमें सफल भी होते हैं लेकिन वे खुद अपने लिये कुछ नहीं कर पाते. उनके मामलों में शासन के पास भी कोई निश्चित और कारगर नीति नहीं है।

दैनिक भास्कर ने उक्त पत्रकारों को प्रताडि़त करने का कोई मौका नहीं छोड़ा और उनके न्याय के लिये कोर्ट जाने को अपनी संस्था का अपमान समझा. पत्रकार अपनी लड़ाई में विजयी होंगे या नहीं, यह तो कहा नहीं जा सकता लेकिन छत्तीसगढ़ के इतिहास में दैनिक भास्कर जैसे मीडिया समूह के खिलाफ पत्रकारों द्वारा अदालत की लड़ाई लडऩे के इस पहले मामले को लेकर युवा पत्रकारों में जोश और उत्साह का जरूर संचार हुआ है।

मीडिया में रुचि रखने वाले स्थानीय लोगों में इन पत्रकारों व उनके परिजनों के प्रति सहानुभूति भी है. साथ ही इस पूरे मामले से एक बात और साफ हो गई कि पत्रकार को अपनी लड़ाई खुद ही लडऩी पड़ती है. उसके कंधे का इस्तेमाल भले ही कोई कर ले लेकिन जब उसे सहारे की जरूरत पड़ती है तो गैर व्यवसाय के लोगों के साथ ही पत्रकारिता के व्यवसाय से जुड़े वरिष्ठ जनों का भी कंधा झुका हुआ दिखाई देता है.
और आखिर में एक बात जब तक दम में दम है, ये पत्रकार लड़ते रहेंगे. चाहे इसके लिए उन्हें कोई भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े....!
.......मित्रों इस खबर को भड़ास 4 मीडिया ने भी प्रमुखता से स्थान दिया है आप वहा भी इस खबर को पढ़ सकते है.